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________________ प्रमाण का स्वरूप ] तृतीय भाग [ ५३६ त्रयक्षयः सकृदिति व्याख्यानात् । तज्ज्ञानदर्शनयोः क्रमवृत्तौ हि सर्वज्ञत्वं कादाचित्कं स्याद्, दर्शनकाले ज्ञानाभावात्तत्काले च दर्शनाभावात् । सततं च भगवतः केवलिनः सर्वज्ञत्वं सर्वशित्वं च साद्यपर्यवसिते' केवलज्ञानदर्शने' इति वचनात् । 'कुतस्तत्सिद्धिरिति 'चेन्निर्लोठितमेतत् सर्वज्ञसिद्धिप्रस्तावे, न पुनरिहोच्यते । 'केवलज्ञानदर्शनयोर्युगपद्भावः कुतः सिद्ध इति चेत्, सामान्य विशेषविषययोगितावरणयोरयुगपत्प्रतिभासायोगात् प्रतिबन्धकान्तराभावात् । सामान्यप्रतिभासो हि दर्शनं विशेषप्रतिभासो ज्ञानम् । तत्प्रतिबन्धक ज्ञानावरणं दर्शनावरणं च । यदुदयादस्मदादेः केवलज्ञानदर्शनानाविर्भावः । तयोश्च युगपदात्मविशुद्धिप्रकर्षविशेषात् परिक्षयसिद्धेः कथमिवायुगपत्प्रतिभासनं सामान्यविशेषयोः स्यात् ? ___ यदि आप ज्ञान और दर्शन को क्रमवर्ती मानोगे तब तो सर्वज्ञपना ही कादाचित्क (अनित्य) हो जावेगा। क्योंकि दर्शन के समय में ज्ञान का अभाव हो जायेगा एवं ज्ञान के समय में दर्शन नहीं रहेगा किन्तु ऐसा तो है नहीं। हमेशा ही केवली भगवान् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं “साद्यपर्यवसिते केवलज्ञानदर्शने" केवलज्ञान और केवलदर्शन सादि और अनंत हैं ऐसा वचन है । शंका-इस बात की सिद्धि कैसे होती है ? जैन-"सूक्ष्मांतरित दूरार्थाः" इस कारिका के प्रस्ताव में सर्वज्ञ की सिद्धि के प्रकरण में इसका विस्तार से वर्णन कर दिया है पुनः अब यहां नहीं कहेंगे । शंका-केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् होते हैं यह बात कैसे सिद्ध है ? जैन-सामान्य और विशेष को विषय करने वाले, आवरण से रहित, केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दोनों का कम से प्रतिभास का अभाव है क्योंकि इनके प्रतिबंधकांतर का अभाव हो गया है। सामान्य प्रतिभास को दर्शन कहते हैं एवं विशेष प्रतिभास को ज्ञान कहते हैं । उनके प्रतिबंधक ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म हैं, जिनके उदय से हम लोगों के केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रकट नहीं होते हैं । आत्मविशुद्धि की प्रकर्षता के विशेष से उन दोनों कर्मों का युगपत ही नाश होना सिद्ध है । पुनः सामान्य विशेष का क्रम से प्रतिभास होवे यह कैसे हो सकेगा ? जिनके अशेष मोह और अंतराय कर्म सर्वथा नष्ट हो चुके हैं ऐसे सर्वज्ञ भगवान् के ज्ञानावरण और दर्शनावरण से भिन्न और कोई प्रतिबंधक कारण कैसे सम्भव होंगे जिससे कि वे केवलज्ञानदर्शन दोनों युगपत् न हो सके । अर्थात् युगपत ही दोनों होते हैं। 1 व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिनहि सन्देहादलक्षणमिति राजवातिकालङ्कारे प्रतिपादितम् । ब्या० प्र० । 2 ते ज्ञानदर्शनयोरिति पाठा० । दि० प्र० । केवल । ब्या० प्र०। 3 सादी च ते पर्यवसिते च । दि० प्र० । साद्य । इति पा० । दि० प्र० । 4 अन्तररहिते । ब्या० प्र० 15 सिद्धयेदिति । पा० दि० प्र० । 6 सूक्ष्मान्तरितदूरार्था इत्यादिना । ब्या० प्र०। 7 मध्ये मीमांसकाशंकां परिहत्य प्रकृतेर्युक्तिमुपदर्शयन्ति केवलज्ञानेति । दि० प्र० । 8 केवलदर्शनज्ञानयोः । दि० प्र०। 9 क्रमेण । ब्या० प्र० । 10 ज्ञानदर्शनावरण । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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