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________________ ५३८ ] अष्टसहस्री [ द० प० कारिका १०१ ज्ञादि प्रमाणे इति संग्रहः । ततः सूक्तमिदमवधारणं प्रमाणमेव तत्त्वज्ञानमिति, प्रत्यक्षपरोक्षतत्त्वज्ञानव्यक्तीनां साकल्येन 'प्रमाणत्वोपपत्तेः । [ ज्ञानानां विशेषलक्षणं विषयं च स्पष्:यंत्याचार्याः ] तत्र 'सकलज्ञानावरणपरिक्षयविजृम्भितं केवलज्ञानं 'युगपत्सर्वार्थविषयम् 'करणक्रम व्यवधानातिवर्तित्वात् युगपत्सर्वभासनम् । तत्त्वज्ञानत्वात्प्रमाणम् । तथोक्तं, 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' इति सूत्रकारैः। केवलज्ञानदर्शनयोः क्रमवृत्तित्त्वात् चक्षुरादिज्ञानदर्शनवद्युगपत्सर्वभासनमयुक्तमिति चेन्न, तयोयौंगपद्यात्, तदावरणक्षयस्य युगपद्भावात्, ‘मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' इति, अत्र प्रथमं भोहक्षयस्ततो ज्ञानावरणादि इसलिये यह अवधारण करना बिल्कुल ठीक है कि "प्रमाणमेव तत्त्वज्ञानं'' प्रमाण ही तत्व ज्ञान है क्योंकि प्रत्यक्ष और परोक्ष तत्त्वज्ञान के सभी भेद विशेष सम्पूर्णतया प्रमाणरूप सिद्ध हैं। [ ज्ञान के विशेष लक्षण और विषय को आचार्य स्पष्ट करते हैं। ] उनमें "सकल ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला ज्ञान केवलज्ञान है जो कि युगपत सम्पूर्ण पदार्थों को विषय करने वाला है क्योंकि वह इन्द्रिय और क्रम के व्यवधान से रहित होने से युगपत् सर्वभासी है और तत्त्वज्ञान रूप होने से प्रमाण है। उसी प्रकार से कहा भी है-"सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" सम्पूर्ण द्रव्य और उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को विषय करने वाला केवलज्ञान है। यह सूत्रकार का वचन है। शंका-केवलज्ञान और केवलदर्शन क्रम से उत्पन्न होते हैं अत: चक्षुरादि ज्ञान, दर्शन के समान इनको युगपत् सर्वभासि कहना अयुक्त है। जैन-नहीं। ये दोनों युगपत् ही होते हैं क्योंकि इन दोनों के आवरण का क्षय युगपत् होता है । "मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलं" मोह का क्षय होने से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट होता है। ऐसा सूत्रकार का वाक्य है अतः इनमें से पहले तो दसवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का क्षय हो जाता है पुनः बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों का क्षय एक साथ होता है ऐसा ही आचार्यों का व्याख्यान है। 1 तत्त्वज्ञानमेवप्रमाणमित्यवधारणेन स्वरूपविप्रतिपत्ति प्रमाणमेव वा तत्त्वज्ञानमित्यवधारणेन संख्याविप्रतिपत्ति च निराकृत्य विषयविप्रतिपत्तिनिराचिकीर्षवः प्राहुः । ब्या०प्र०। 2 हेतुः । दि० प्र०। 3 पक्षः । दि० प्र० । 4 साध्यम् । दि० प्र०। 5 इन्द्रिय । दि० प्र०। 6 करणानामिन्द्रियाणां क्रमः क्रमप्रवृत्तिस्तस्मिन्सति व्यवधानमावरणं करणक्रमव्यवधानं तस्योल्लंघनत्वात् । दि० प्र०। 7 कालादिव्यवधान। ब्या० प्र०। 8 न चैतदसिद्ध युगपत्सर्वभासनं प्रमाणं भवति तत्त्वज्ञानत्वात् । दि० प्र०। 9 आह परः केवलज्ञानदर्शने पक्षः युगपत्सर्वभासनेन भवत इति साध्यो धर्मः क्रमवत्तित्वाद्यथा चक्षुरादिज्ञानदर्शने । दि० प्र०। 10 ज्ञानकाले सामान्यभासनाभावात दर्शनकाले विशेषभासन्नभावात् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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