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________________ ५३२ ] अष्टसहस्री [ द० प० कारिका १०१ त्तिविशेषसद्भावेपि साकल्येन स्मृतेरप्रामाण्यकल्पनायामनुमानोत्थानायोगः, संबन्धस्मृतेरप्रमाणत्वात्, तस्या अपि 'लैङ्गिकत्वेन प्रामाण्ये परापरसम्बन्धस्मृतीनामनुमानत्वकल्पनादनवस्थानात् सम्बन्धस्मृतिमन्तरेणानुमानानुदयात् । 'सुदूरमपि गत्वा 'सम्बन्धस्मृतेरननुमानत्वे प्रमाणत्वे च सिद्धं, स्मृतेरूपयोगविशेषात् प्रमाणत्वमविसंवादादनुमानवत् । तच्च यथा प्रत्यक्षमनुमानमिति प्रमाणे एवेत्यवधारणं प्रत्याचष्टे, तथा त्रीण्येव प्रमाणानि चत्वार्येव पञ्चैव षडेवेत्यवधारणमपि, स्मृतेरागमोपमानार्थापत्त्यभावेष्वनन्तर्भावात्, तदन्तर्भावेनुमाना ज्ञान विशेष के होने पर भी सम्पूर्णतया उस स्मृति को अप्रमाण मानोगे तब तो अनुमान ही उत्पन्न नहीं हो सकेगा क्योंकि इस प्रकार से तो आपके यहां अविनाभाव सम्बन्ध की स्मृति भी अप्रमाण ही रहेगी एवं उस स्मृति को भी अनुमान रूप से प्रमाण स्वीकार कर लेने पर परस्पर सम्बन्ध की स्मृतियों को अनुमान रूप कल्पित करने से अनवस्था आ जावेगी, क्योंकि अविनाभाव की स्मृति के बिना अनुमान उत्पन्न हो ही नहीं सकता है। बहुत दूर जाकर के भी कहीं न कहीं तो आप अविनाभाव सम्बन्ध की स्मृति को यदि अनुमान नहीं कहेंगे तब तो वह स्मृति एक स्वतन्त्र प्रमाण सिद्ध ही हो जादेगी। इसलिये 'स्मति का उपयोग विशेष होने से वह प्रमाण है क्योंकि अनुमान ज्ञान के समान वह भी अविसंवादिनी है। और जिस प्रकार से यह स्मृति प्रमाण "प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण है" इस प्रकार की वैशेषिक और बौद्ध की प्रमाण संख्या का विघटन कर देती है। तथैव सांख्याभिमत प्रमाण तीन ही हैं, नैयायिक मान्य प्रमाण चार ही हैं, प्राभाकर मान्य पांच ही हैं, जैमिनीय के द्वारा इष्ट प्रमाण छह ही हैं उन सबके अवधारण-निश्चय को यह स्मृति प्रमाण समाप्त कर देता है क्योंकि यह स्मति प्रमाण, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव इन किसी भी प्रमाणों में अन्तर्भूत नहीं होता है । यदि इन प्रमाणों में आप जबरदस्ती स्मृति को अंतर्भूत करोगे तब तो अनुमान भी इन्हीं में अंतर्भूत हो जावेगा पुनः अनवस्था हो जाने से अर्थात् कुछ भी व्यवस्था के न होने से आप लोगों 1 अनुमात्वेन । दि० प्र०। 2 अत्राह परः हे स्याद्वादिन् सम्बन्धस्मरणमप्यनुमानज्ञानस्यान्तर्भूयतस्ततः प्रमाणमेवेति चेत् - स्या० सम्बन्धस्मतेरप्यनुमानत्वेन कृत्वा प्रमाणत्वे सति तदा सम्बन्धस्मरणं विना सर्वथाप्यनुमानं न संभवति भवदपेक्षया सम्बन्धस्मरणमनमाने पतितं तदन्वनुमानोदयार्थमन्यत्सम्बन्धस्मरणमाश्रयणीयं तदप्यनुमाने पतितं ततोनुमानोदयार्थमन्यत्सम्बन्धस्मरण मनुमाने पतितमेवमुत्तरोत्तरसम्बन्धस्मरण बहूनामनुमानत्वकल्पनादनवस्थान नाम दोषः स्यात् । दि० प्र०। 3 उत्तरोत्तर । दि० प्र०। 4 ततश्च । ब्या० प्र०। 5 महानसप्रत्यक्षतोऽग्निदृष्टवा तत्रैव स्मरति यथा । व्या प्र०। 6 एवमतिदूरमपि गत्वा सौगतेन सम्बन्धस्मृतेरनुमानत्वं प्रमाणत्वं स्यादित्यङ्गीकृते सत्यर्थविशेषान्न स्मृतेः प्रमाणत्वं सिद्ध कथमित्युक्ते स्या० अनुमानमाह । सम्बन्धस्मृतिः पक्ष: प्रमाणं भवतीति साध्यो धर्मो विसंवादात् यथानुमानम् । दि० प्र०। 7 यावान् कश्चिद्धमः स सर्वोप्यग्निजन्माऽनग्निजन्मा न भवतीति व्याप्तिः सम्बन्धस्तस्य स्मृतिः । दि० प्र०। 8 अपूर्वार्थ । प्रमितिविशेषमाश्रित्य । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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