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________________ ५३० ] अष्टसहस्री [ द० प० कारिका १०१ 'प्रतिषेध्यमनिर्णीतनिर्णयात्मकत्वात् क्षणभङ्गानुमानवत् । क्षणिकत्वानुमानस्य ह्यनिश्चिताध्यवसाय एवानधिगतस्वलक्षणाध्यवसायः । स च ध्वनिदर्शनानन्तरभाविनो व्यवसायस्यास्तीति युक्तं प्रमाणत्वम् । 'ध्वनेरखण्डशः 'श्रवणादधिगमोपि प्राथमकल्पिकस्तत्त्वनिर्णीतिरेव', 'तद्वशात् तत्त्वव्यवस्थानानिीतेरेव मुख्यप्रमाणत्वोपपत्तेः, तदत्यये दृष्टेरपि विसंवादकत्वेन प्रामाण्यानुपपत्तेरदर्शनानतिशायनात्तद्दर्शनाभावेपि 'तत्त्वनिश्चये तदन्यसमारोपव्यवच्छेदलक्षणे प्रमाणलक्षणाङ्गीकरणात् । ___जैन-ऐसी कल्पना करने पर तो इस प्रकृत व्यवसाय रूप सविकल्प को भी प्रमाणतत्त्व का निषेध नहीं कर सकेंगे क्योंकि यह भी निर्विकल्प के द्वारा अनिर्णीत नीलादिकों का ही निर्णय कराने वाला है, क्षणिक अनुमान के समान । कारण कि-क्षणिक अनुमान का अनिश्चित अध्यवसाय ही अनधिगत स्वलक्षण अध्यवसाय कहलाता है और वह ध्वनि दर्शन के बाद होने वाला व्यवसायात्मकसविकल्पज्ञान में है इसलिये उसे भी प्रमाण मानना युक्त ही है। ध्वनि को अखंड रूप से सुनने से होने वाला ज्ञान भी प्रथमकल्पिक-आदि में होने वाला तत्त्वनिर्णयात्मक ही है। उसके निमित्त से तत्त्व की व्यवस्था हो जाने से वह निर्णीति-सविकल्प ही मुख्य प्रमाण है यह बात सिद्ध हो जाती है । उस व्यवसाय को प्रमाण न मानने पर तो निर्विकल्प प्रत्यक्ष में भी विसंवादकता होने से वह भी प्रमाण नहीं हो सकेगा क्योंकि वह भी अदर्शन-सविकल्पक का अनतिशय उल्लंघन नहीं करता है। यदि आप कहें कि निर्णीत से ही तत्त्व की व्यवस्था नहीं है किन्तु परम्परा से दर्शन से ही है ऐसा भी नहीं है क्योंकि दर्शन के अभाव में भी तत्त्व का निश्चय होने पर उससे अन्य समारोप व्यवच्छेद लक्षण में प्रमाण का लक्षण स्वीकार किया गया है। अर्थात् उस नील में अनीलादि रूप जो समारोप हैं उनका "अनीलव्यावृत्तिर्नील" इस प्रकार शब्दार्थ के परिज्ञान से ही व्यवच्छेद हो जाता है, तब वह प्रमाण कहलाता है। 1 निश्चयान्तरेणानिश्चितः । दि० प्र० । 2 निश्चयान्तरेण । दि० प्र० । 3 किञ्च निर्विकल्पकमन्तरेण विकल्प एव प्रथमतः समुत्पद्यत इत्याह । ब्या० प्र० । 4 परिछित्ति । ब्या० प्र०। 2 प्रथम । इति पा० । दि० प्र० । 6 विकल्पज्ञानान्न तु प्रत्यक्षात् । ब्या० प्र०। 7 तत्त्वनिर्णीतिः । दि० प्र०। 8 स्या० तस्यास्तत्त्वनिर्णीतेरभावे सति निर्विकल्पकदर्शनस्याप्यसत्यत्वेन कृत्वा प्रमाणत्व नोपपद्यते । कस्माद्दर्शनस्यानतिलंघनात् कोर्थः निश्चयाभावे दृष्टमप्यदृष्टम् =पुनः कस्मात्सौगताभ्युपगतदर्शनाभावेपि तस्मान्निश्वयात्पृथग्भूतसंशयादिस्वरूपसमारोपरहितलक्षणे तत्त्वनिश्चये प्रमाणलक्षणांगीकारात् । दि० प्र० । 9 अर्थादेव । दि०प्र० । 10 यत्र निश्चयो जातस्तत्र तत्त्वव्यवस्थापन दर्शनं नापेक्षते इत्यर्थः । दि० प्र०। 11 विकल्पस्य स्थिरस्थलसाधारणाकारग्राहित्वादप्रामाण्यं नाशंकितव्यं स्थिराद्याकारस्य वास्तवत्वसमर्थनात् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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