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________________ ५२८ ] अष्टसहस्री द०प० कारिका १०१ कथं न सर्वथैवाविसंवादकत्वमनुमानस्य ? सामान्यविशेषात्मकवस्तुविषयत्वप्रसिद्धेः प्रत्यक्षवत्, अन्यथा प्रमाणत्वायोगात् । तस्मात् सूक्तं, तत्त्वज्ञानमेव प्रमाणं कारणसामग्रीभेदात् प्रतिभासभेदेपोति । न ह्यनुमानस्य वस्तुविषयत्वाद्विशदप्रतिभासनमापादयितुं शक्यं, विदूरस्थपादपादिदर्शनेनाविशदप्रतिभासेन व्यभिचारात् । पृथग्जनप्रत्यक्षस्यापि योगिप्रत्यक्षवदसंभवात् सकलसमारोपत्वप्रसङ्गात् स्वलक्षणविषयत्वाविशेषात् । तदविशेषेपि योगीतरप्रत्यक्षयोः कारणसामग्रीविशेषाद्विशेषपरिकल्पनायां, "तत एव प्रत्यक्षानुमानयोरपि प्रतिभासविशेषोस्तु, सर्वथा बाधकाभावात् । अविसंवादक है तब तो अग्नि आदि सामान्य स्वरूप जो उसका आलम्बन है उस आलम्बन में भी वह अविसंवादक ही है। इस प्रकार यह अनुमान ज्ञान सर्वथा ही अविसंवादक क्यों नहीं हो जावे ? क्योंकि वह भी प्रत्यक्ष के समान सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को ही ग्रहण करने वाला प्रसिद्ध है अन्यथा वह प्रमाण नहीं हो सकेगा। इसलिये ठीक ही कहा है कि कारण सामग्री के भेद से प्रतिभास भेद होने पर भी तत्त्वज्ञान प्रमाण है। ____ अनुमान ज्ञान वस्तु को विषय करने वाला है इसलिये उसका प्रतिभास विशद ही हो ऐसा कहना भी शक्य हीं है क्योंकि दूर में स्थित वृक्षादि को देखने रूप अविशद प्रतिभास से व्यभिचार आ जाता है अर्थात् प्रत्यक्ष भी सर्वथा विशद प्रतिभास वाला ही हो ऐसा नहीं है किन्तु दूरत्व आदि कारण के भेद से प्रत्यक्ष में भी अविशद प्रतीति देखी जाती है। पृथग्जन-साधारण जनों का प्रत्यक्ष भी योगि प्रत्यक्ष के समान नहीं हो सकता है उसमें सकल समारोप का प्रसंग आ जाने से स्वलक्षण को विषय करना तो दोनों में समान ही है। यदि आप ऐसा कहते हैं कि स्वलक्षण को विषय करने रूप से समानता होने पर भी योगि प्रत्यक्ष और साधारण जनों के प्रत्यक्ष में कारण सामग्री के भेद से भेद की कल्पना है तब तो उसी हेतु से ही प्रत्यक्ष और अनुमान में भी प्रतिभास भेद मानों सर्वथा ही बाधा का अभाव है। 1 अनुमानस्य प्रामाण्यं सिद्धं यतः । ब्या० प्र० । यत एवं तस्माद्रव्येन्द्रियप्रकाशक्षेत्रादिकारणसामग्रीभेदात्प्रतिभासभेदेपि तत्त्वज्ञानं स्वरूपनिश्चायकमेव सत्यमिति सुभाषितम् = आह पर: वस्तुग्राहकत्वादनुमानं स्पष्टप्रतिमासन मेव स्या० इति वक्तुं शक्यं न । कस्मात् । अतिदूरवर्तिवृक्षाद्यवलोकनेन प्रत्यक्षज्ञानस्यास्पष्टप्रतिभासनेन कृत्वा व्यभिचारादनुमानस्यापि = यथा सुगतप्रत्यक्षस्यास्मदादिजनप्रत्यक्षस्यापि सकलसंशयादिसमारोपासंभव: प्रसजति यत उभयोः स्वलक्षणविषयत्वेन विशेषाभावात् । दि० प्र० 1 2 इन्द्रियलिङ्ग । ब्या०प्र० । 3 विशदेतररूपतया प्रतिभासभेदेप्यनुमानादेः प्रामाण्य मिति । ब्या० प्र०। 4 एतेनानुमानं मिथ्याज्ञानं भवति प्रमाणञ्च भवतीति सौगतवचनं निरस्तसन्निकर्षादिप्रामाण्यच ततः स्वरूप विप्रतिपत्तिनिराकरणमनेन । दि० प्र०। 5 व्याप्तिद्वारेण द्रढयति । पत्र-यत्र वस्तुविषयत्वं तत्र तत्र विवादत्वम् । ब्या०प्र० । 6 स्या० तत्तेन स्वलक्षणविषयत्वेन कृत्वा भेदेपि सति योग्ययोगिप्रत्यक्षयोर्द्वयोः सकलावरणकदेशावरणलक्षणकारणसामग्रीभेदाभेदपरिकल्पनायां क्रियमाणायां सत्यां तत: कारणसामग्रीविशेषादेव प्रत्यक्षानुमान प्रमाणयोरपि विशदाविशदलक्षणप्रतिभासभेदो भवतु कस्माद्बाधकप्रमाणाभावात् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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