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अष्टसहस्री
[ द०प० कारिका १०१
लैङ्गिकं, लिङ्गलिङ्गिसंबन्धाप्रतिपत्तेरन्यथा' दृष्टान्तेतरयोरेकत्वात् किं केन कृतं स्यात् ? तदेतेन- 'प्रतिपन्यव्यभिचारस्य य इत्थं प्रतिभासः स्यात् स न संस्थानवजितः', एवमन्यत्र दृष्टत्वादनुमानं 'तथा सती'ति प्रज्ञाकरमतमप्यपास्तं, 'स्वयमसिद्धेन दृष्टान्तेन साध्यसिद्धेरकरणात् । 'कदाचित्संवादात् प्रत्यक्षत्वेनैव मणिप्रभायां मणिदर्शनस्य दृष्टान्तत्वमयुक्त, 'कादाचित्कार्थप्राप्तेरारे कादेरपि संभवात् प्रत्यक्षत्वप्रसक्तेः ।
सर्वदा संवादात्तस्य प्रत्यक्षत्वमुदाहरणत्वं चेत्यप्यसार, तदसिद्धेः । न हि मिथ्या
अन्तर्भूत नहीं हो सकेगा क्योंकि लिंग और लिंगी का अविनाभाव नहीं है अन्यथा-यदि आप इस ज्ञान को अनुमान ज्ञान मानोगे तब तो दृष्टांत एवं दार्टीत में एकत्व के हो जाने से किसके द्वारा कौन सिद्ध किया जावेगा ? अर्थात् क्षणिकत्वादि अनुमान भी दृष्टांत से सिद्ध नहीं हो सकेंगे क्योंकि दृष्टांत और दाष्टीत में एकत्व मान लिया है। ___ इस कथन से तो "प्राप्त हुआ है व्यभिचार जिसको ऐसे पुरुष का जो इस प्रकार का प्रतिभास है वह प्रतिभास संस्थान-गोलाकारादि से रहित नहीं है।" इस प्रकार से अन्यत्र- मणि से उपेत देश में देखा जाने से अनुमान होता है, अर्थात् “मेरा यह प्रतिभास मणि संस्थान वाला है क्योंकि वह इस प्रकार का प्रतिभास है अन्यत्र- मणि से सहित प्रदेश में सम्यक् प्रकार से प्राप्त हुये प्रतिभास के समान" इत्यादि प्रकार से कहने वाले प्रज्ञाकर के मत का भी निराकरण कर दिया गया है क्योंकि असिद्ध दृष्टांत से सत्य अनुमान रूप साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती है। कदाचित्-किसी काल में संवाद होने से प्रत्यक्ष से ही मणिप्रभा में मणिदर्शन को दृष्टांत मानना अयुक्त है।
कदाचित-किसी-किसी काल में अर्थ की प्राप्ति होने से आरेका-शंकादि ज्ञान में भी सम्भव है पुनः उसे भी प्रत्यक्ष मानना पड़ेगा किन्तु संशयादि ज्ञानों को प्रत्यक्ष नहीं माना जाता है ।
बौद्ध-उस मणिप्रभा में मणिदर्शन सर्वदा संवाद रूप है अत: वह प्रत्यक्ष है और उदाहरण
जैन-यह कथन भी असार है क्योंकि उसमें सदैव संवाद असिद्ध है। मिथ्याज्ञान में संवादन
1 तर्काभावात् । 2 एतेन गोपालघटीधूमदर्शनादितोऽग्न्यादी प्राप्तविपर्ययस्य पुरुषस्य पुरस्तात्कश्चित्सोगतोनुमानं रचयति हेबटो! अग्निमान् अयमस्तीति पृष्टे आह यः भूतलमारभ्याकाशाभ्र लिधूमलेखा स्यादिति । इत्थं प्रतिभासः स्यात्स स्वरूपसहित एव एवं महानसादी दृष्टत्वात्तथा सत्यनुमानं प्रमाणं घटत इति । व्याप्तिसहितानुमानानिराकरणेन । दि० प्र० । 3 क्षणिकत्वप्रतिभासः । स्वरूपः । दि० प्र० : 4 व्याप्तिसद्भावे सति । ब्या० प्र० । 5 प्रमाणेनासिद्धत्वेन । ब्या० प्र० । 6 तत्त्वव्यवसायस्य प्रमाणत्योपपत्तावप्यनुमाने प्रत्यक्षेवान्तर्भावो भविष्यतीत्याशंकायामाह । दि० प्र०। 7 कुत्रचित्प्रदेशे किमेतज्जलं मरीचिका वेति संशयोत्पत्ती संशयितस्य जलस्य कदाचिदन्यत्र जनप्राप्तिर्यथा तथा प्रकृतेपि । ब्या० प्र०। 8 संशयादेः । ब्या० प्र०। 9 न केवलं मणिप्रभादर्शनस्य कादाचितकार्थप्राप्तिः । ब्या० प्र० ।
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