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ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ४६६ दृष्टं, कुटादिकार्यं कर्तुमबुद्ध्यमानस्य' तददर्शनाद् , तद्बुद्धिमतोपीच्छापाये' तदनुपलब्धेस्तदिच्छावतोपि प्रयत्नाभावे तदनुपलम्भात् तद्वद्वितनुकरणस्यापि' बुद्धिमतः सृष्टुमिच्छतः प्रयत्नवतः शश्वदीश्वरस्य समस्तकारकप्रयोक्तृत्वोपपत्तेर्न दृष्टान्तव्यतिक्रमः', सशरीरत्वेतरयोः कारकप्रयुक्ति प्रयत्नङ्गत्वात् । न हि सर्वथा दृष्टान्तदाान्तिकयोः साम्यमस्ति तद्विशेषविरोधा'' दिति तदयुक्तं, वितनुकरणस्य बुद्धीच्छाप्रयत्नानुपपत्तेर्मुक्तात्मवत्, शरीरबहिः संसार्यात्मवत्', कालादिवद्वेति । शरीरेन्द्रियाद्युत्पत्ते:10 पूर्वमात्मना व्यभिचार इति
लिये हमारा दृष्टान्त व्यतिक्रमित नहीं होता है क्योंकि शरीर सहित एवं शरीर रहित होना कारक प्रयोग के प्रति कोई कारण नहीं है, किन्तु इच्छादिक ही सृष्टि के लिये कारण विशेष हैं। दृष्टांत और दाष्टीत में सर्वथा समानता नहीं रहती अन्यथा दृष्टांत और दाष्टीत में भेद ही नहीं रहेगा अर्थात् कुम्भकार में ईश्वर के समान ज्ञान करने की इच्छा और प्रयत्न समान होने से ही । पना है किन्तु शरीर के सहित, रहित से समानता नहीं है । यदि दोनों में सर्वथा-सभी प्रकार से समानता हो जावे तब तो यह दृष्टांत है और यह दाष्टीत है ये दो भेद भी कैसे बन सकेंगे ? अतएव सर्वथा समानता नहीं है।
जैन - यह कथन भी अयुक्त ही है क्योंकि शरीर और इन्द्रिय से रहित ईश्वर के बुद्धि, इच्छा एवं प्रयत्न ही नहीं हो सकते हैं, मुक्तात्मा के समान अथवा शरीर से बाहर संसारी आत्मा के समान या कालादि के समान अर्थात् यौगमत में आत्मा को व्यापक माना है उनकी अपेक्षा से यह दोष दिया है कि शरीर से बाहर आत्मा में बुद्धि आदि नहीं रहती हैं यह उनका मत है तथा कालादि में भी शरीरेन्द्रिय के न होने से बुद्धि आदि नहीं हैं ऐसा उन्होंने स्वयं माना है ।
योग-शरीरेन्द्रियादि की उत्पत्ति से पहले आत्मा से व्यभिचार आ जावेगा। अर्थात् आत्मा में शरीरेन्द्रिय के न होने पर भी वृद्धि, इच्छा और प्रयत्न देखे जाते हैं उससे आपका हेतु व्यभिचरित हो जावेगा।
जैन-नहीं, आपने उसको भी बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न से रहित ही माना है अन्यथा आपके स्वमत (योगमत) का विरोध हो जावेगा, किन्तु हम जैनों के यहां तो उस शरीर सहित के ही बुद्धि आदि
1 अजानानस्य । दि० प्र०। 2 घटादिकार्य । दि० प्र० । 3 प्रयोकृत्त्व । ब्या० प्र० । तददर्शनाद्बुद्धि । इति
दि० प्र०14 कार्यादर्शनात् । दि० प्र०। 5 कुलालादिवत् । ब्या० प्र० । 6 कुम्भकारस्य । ब्या० प्र० । 7 अन्यथा । न्या० प्र० । 8 दृष्टान्तदाष्र्टान्तिकयोर्भेदविरोधात् । व्या० प्र०। 9 बुद्धीच्छाप्रयत्नानुपपत्तिर्यथा । ब्या० प्र०। 10 पर आह हे स्याद्बादिन् शरीरेन्द्रियादिजन्मत: प्रागवस्थायां विग्रहगत्यापन्नेन संसार्यात्मना कृत्वा वितनुकरणत्वादिति हेतोस्तदव्यभिचारोस्तीति चेत् । स्याद्वादी वदत्येवं न । कस्मात्तस्य विग्रहगत्यापन्नस्यात्मनो बुद्धीच्छाप्रयत्ना न भवन्त्येवेत्यङ्गीकारात् स्याद्वादिना मन्यथा तदङ्गीकाराभावात् स्याद्वादमतं विरुद्धयते यतः तथापरेषां भवतामीश्वरवादिनाञ्च शरीरस्यैव संसारिणः बुद्धीच्छायत्रादिमत्वांगीकरणात्तेन संसार्यात्मना कृत्वा मम अशरीरत्वादिहेतोर्न व्यभिचारः । ब्या० प्र० ।
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