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________________ ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन ] तृतीय भाग [ ४८६ । ईश्वरसृष्टिकर्तृत्वं निराकृत्य जैनाचार्याः सृष्टेरनादित्वं स धयंति नैयायिक प्रति । ] तत्र' कालदेशावस्थास्वभावभिन्नानां तनुकरणभुवनादीनां किलायं कर्तेति' महच्चित्रं, प्रकृतप्रमाणबाधनात्। एतेनेश्वरेच्छा प्रत्युक्ता, तस्या अपि नित्यैकस्वभावायाः कार्यवैचित्र्यानुपपत्तेर्वस्तुत्वसंभावनानुपपत्तेश्चाविशेषात् । न चैतेनास्याः संबन्धस्तत्कृतोपकारानपेक्षणात् । न हि नित्यादेकस्वभावादीश्वरात् कश्चिदुपकारः सिसृक्षायास्तथाविधायाः संभवत्यनर्थान्तरभूतो, क्षणिक पदार्थ को हमने स्वीकार ही नहीं किया है तथा एक क्षण स्थिति रूप प्रतीति भी नहीं आती है। नैयायिक-क्रम और युगपत् रूप व्याप्य की परिणामी रूप व्यापक के साथ व्याप्ति असिद्ध है। जैन - ऐसा नहीं कहना । क्योंकि अपरिणामी क्षणिक के समान नित्य अपरिणामी में भी क्रम अथवा युगपत् का विरोध है। इसलिये किसी को परिणामी न मानने पर क्रम और युगपत् का अभाव हो जावेगा और उसमें अर्थक्रिया के न होने से उसका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होगा। पुनः उस वस्तु ही नहीं कह सकेंगे यह बात निश्चित हो गई। [ ईश्वर सृष्टि का कर्ता है इस नैयायिक की मान्यता का निराकरण करके जैनाचार्य सृष्टि को अनादि सिद्ध करते हैं।] उसमें काल, देश, अवस्था और स्वभाव से भिन्न तनु, करण-इन्द्रियां, भुवन आदि का यह महेश्वर कर्ता है ऐसा मानना महान् आश्चर्यकारी है क्योंकि प्रकृत्त के प्रमाण से बाधित है । एक . स्वभाव वाले ईश्वर से अनेक कार्यरूप सृष्टि का निराकरण करने से ही "ईश्वर की इच्छा से ही यह सृष्टि निमित्त की जाती है" इसका भी निराकरण किया गया हो समझना चाहिये । क्योंकि उस नित्य एक स्वभाव वाली इच्छा से भी विचित्र-विचित्र कार्यों की उत्पत्ति असंभव है एवं वे कार्य वस्तुभूत हैं यह सम्भावना भी असंभव ही है दोनों जगह दोष समान ही हैं। एवं उस ईश्वर से इस इच्छा का संबंध भी नहीं है क्योंकि उसके द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा नहीं है। प्रश्न यह उठता है कि नित्य एक स्वभाव वाले ईश्वर से उस सिसृक्षा का कोई उपकार उस ] तथा सति । ब्या प्र० । 2 तनुभुवनकरणादीनाम् । इति पा० । ब्या० प्र०, दि० प्र०। 3 ईश्वरः । ब्या० प्र.। 4 किञ्च विशेषस्तेनेश्वरेण सह अस्या इच्छायाः संबन्धो नास्ति कस्मादिच्छेश्वरकृतमुपकारं नापेक्षयते यतोमूमेवार्थ प्रकटयति नित्यकस्वरूपादीश्वरात नित्यकस्वभावायाः सुष्टुमिच्छाया कश्चनोपकारं न जायते पुनराह स्या० भवतु नामोपकारः स उपकार ईश्वरादभिन्नो भिन्नो वेति विकल्पोभिन्नश्चेत्तदा ईश्वरस्यानित्यस्वभावोपकारपरिणतस्य नित्यत्वं विरुद्धचते भिन्नश्चेत्तदानुपकारादुपकारस्य ईश्वरेण सह सम्बन्धो न सिद्धयति सोप्युपकार ईश्वरसम्बन्धनिमित्तमन्योपकारमपेक्षते स चोपकार ईश्वराद्भिन्नो वाभिन्नो अभिन्नश्चेदीश्वरस्यानित्यत्वमाप्रसङ्गः निम्नश्चेत्तदा सम्बन्धासिद्धिः सा चाप्युपकार ईश्वरसम्बन्धार्थमन्योपकारमपेक्षते पूर्ववत् सोप्यन्यं सोप्यन्यमेवमनवस्था स्यात् । दि०प्र० । 5 सष्टमिच्छायाः । ब्या०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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