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________________ ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन ] तृतीय भाग [ ४८५ नन्वस्तु मोहप्रकृतिभिः कामादिदोषात्मिकाभिः सहचरितादज्ञानात् पुण्यपापकर्मणोः शुभाशुभफलानुभननिमित्तयोः प्राणिनां बन्धः । स तु कामादिप्रभवो' महेश्वरनिमित्त' एवेत्याशङ्कामपाकर्तुमिदमाहुः कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः । तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्ध्यशुद्धितः ॥६६॥ कामादिप्रभवो भावसंसारोयं नकस्वभावेश्वरकृतस्तत्कार्यसुखदुःखादिवैचित्र्यात् । यस्य यस्य कार्यवैचित्र्यं तत्तन्नकस्वभावकारणकृतं, यथानेकशाल्यकुरादिविचित्रकार्य शालिबीजा उत्थानिका योग कहता है कि कामादि दोषरूप मोह प्रकृतियों से सहचरित अज्ञान से शुभ, अशुभ फल के अनुभव में निमित्तभूत पुण्य और पाप का बन्ध प्राणियों के होता है सो होवे किन्तु वह कामादि-इच्छादि की उत्पत्ति रूप कार्य तो महेश्वर के निमित्त से ही होता है न कि कर्मकृत । इस प्रकार की शंका को दूर करने के लिये श्री समंतभद्रस्वामी अगली कारिका को कहते हैं कामक्रुधादिक भावों से है, यह उत्पन्न भाव संसार । स्वयं उपाजित कर्मों के, अनुरूप दिखे है विविध प्रकार ।। वह ही कर्म हुआ है अपने, रागादि परिणामों से। कर्म सहित प्राणी दो विध हैं, भव्य अभव्य प्रकारों से ॥६६॥ कारिकार्थ-जो काम-रागादिकों का उत्पाद होता है वह कार्य रूप-भाव संसार नाना प्रकार का है वह ज्ञानावरणादि कर्मबन्ध के अनुसार ही होता है और वह कर्म अप ने हेतुभूत रागादि परिणामों से ही होता है। तथा वे जीव शुद्धि-भव्यत्व और अशुद्धि-अभव्यत्व के भेद से दो प्रकार के हैं ॥६६॥ "रागादि से उत्पन्न हआ यह भाव संसार एक स्वभाव वाले महेश्वर के द्वारा किया हआ नहीं है । क्योंकि उसके कार्यरूप सुख, दुःखादिकों की विचित्रता (नाना प्रकारता) देखी जाती है। जिस-जिसका कार्य विचित्र होता है वह-वह एक स्वभाव वाले कारण से किया हुआ नहीं होता है । जैसे अनेक शालि आदि के अंकुरादि रूप विचित्र कार्य शालि आदि के बीजों से हुये हैं और संसार में 1 रतिः । ब्या० प्र०। 2 कामक्रोधादयो दोषाः प्रभवन्ति जायन्तेऽस्मिन्निति कामादिप्रभवः भाव संसारः। 3 एव । कार्यम् । दि० प्र० । 4 ननु कर्मबन्धनिमित्तः । दि० प्र० । 5 इच्छाद्वेषादिभेदेननानाप्रकारेण । दि० प्र०। 6 ननु यदि कर्मबन्ध नुरूपतः संसार: स्यात्तहि केषाञ्चिन्मुक्तिरितरेषां संसारश्च न स्यात्कर्मबन्धनिमित्ताविशेषादित्याशं. कायामाह । कामादिकार्याणि = ता=बसः । दि० प्र० । 7 कामादिकार्याणि । ब्या० प्र०। 8 जीवा भव्याभव्यत्वतो मुक्ति संसारञ्च प्राप्नुवन्ति । ब्या० प्र० । 9 ता । ब्या० प्र० । 10 बसः । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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