________________
४८४ ]
अष्टसहस्री
[ द०प० कारिका - क्रोधादि कषाय से सहित मिथ्याज्ञान से बंध एवं कषायरहित अज्ञान से बंध नहीं होता है । तथैव मोहरहित अल्पज्ञान से मोक्ष होता है किन्तु मोहसहित अल्पज्ञान से मोक्ष नहीं होता है । "सकषायत्वाज्जीवः कर्मणोयोग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंधः" अतएव कषायरहित क्षीणमोह और उपशांत जीव के अज्ञान से बन्ध नहीं होता है । इन दोनों गुणस्थानों में केवलज्ञान न होने से अज्ञान विद्यमान है, किन्तु बन्ध नहीं है। तथा “मिथ्यादर्शना विरतिप्रमादकषाययोगाबन्ध हेतवः" इस सूत्र के अनुसार कषायादि से सहित ही अज्ञान बंध का हेतु है एकान्ततः नहीं है। एवं प्रकृष्ट श्रुतः ज्ञानादि क्षायोपशमिकज्ञान केवलज्ञान की अपेक्षा अल्प ही है, वह स्तोक ज्ञान छद्मस्थ वीतराग के चरम समय में विद्यमान है उस अल्पज्ञान से भी आर्हत्य लक्षण अपर मोक्ष सिद्ध है किन्तु मिथ्यादृष्टि से लेकर दशवें गुणस्थान तक मोहसहित ज्ञान कर्मबन्ध का ही कारण है यह बात स्याद्वाद से सिद्ध हो जाती है।
कथंचित् मिथ्यात्व, कषायादिसहित अज्ञान से बंध है।
कथंचित् मिथ्यात्व, कषायादिरहित अज्ञान से बंध नहीं है।
कथंचित् उभयरूप है इत्यादि । तथैव कथंचित् मोहरहित अल्पज्ञान से मोक्ष होता है । कथंचित् मोहरहित अल्पज्ञान से मोक्ष नहीं होता है । कथंचित् उभयरूप है इत्यादि सप्तभङ्गी घटा लेना चाहिये।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |