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________________ ज्ञान और अज्ञान से मोक्षबंध के एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग [ मिथ्याज्ञानलक्षणादज्ञानाद्बन्धो भवतीति पक्षं निराकरोति जैनाचार्य: । ] अथ 'मिथ्याज्ञानलक्षणादज्ञानाद् ध्रुवो बन्धः स्यात्, - 'धर्मेण ' गमनमूर्ध्वं गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेण । ' ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्धः ॥' [ ४६५ इति वचनात् । विपर्ययो मिथ्याज्ञानं सहजमाहार्यं चानेकविधमित्यभिमतं तदप्यसत्यं', केवल्यभावप्रसक्तेः, समयान्तरश्रवणजनितानेकविधाहार्यविपर्ययस्य सांख्यागमभावनाबलोद्भूततत्त्वज्ञानाद्विनाशेपि सहजस्य' विपर्ययस्यानिवृत्तेः । केवलज्ञानात् प्राग् बन्धस्या लक्षण अज्ञान से बन्ध होना अवश्यंभावी है यह पक्ष भी "स्तोक तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है" इस पक्ष के समान क्षेमंकर नहीं है । [ मिथ्याज्ञन से बन्ध एवं सम्यग्ज्ञान से मोक्ष होता है इस एकांत का निराकरण । ] सांख्य - मिथ्याज्ञान लक्षण अज्ञान से बन्ध निश्चित ही है क्योंकिश्लोकार्थ - "धर्म से ऊर्ध्वगति में गमन होता है एवं अधर्म से अधोगति में गमन होता है । ज्ञान से मोक्ष एवं अज्ञान से बंध होता है ।" ऐसा वचन पाया जाता है । वह विपर्ययज्ञान, मिथ्याज्ञान सहज आहार्य आदि अनेक प्रकार का है । जैन - यह कथन भी असत्य है । केवली के अभाव का प्रसंग आ जावेगा । भिन्न सिद्धान्त के श्रवण से उत्पन्न हुआ जो अनेक प्रकार का आहार्य रूप विपर्यय है वह आप सांख्य के आगम की भावना के बल से नष्ट हो जाता है फिर भी सहज-स्वाभाविक विपर्यय ज्ञान नष्ट नहीं होता है। क्योंकि केवलज्ञान के पहले बंध का होना अवश्यम्भावी है एवं उस बन्ध निमित्तक मिथ्याज्ञानान्तर की उद्भूति होने से केवलज्ञान की उत्पत्ति का विरोध है । आगम के बल से ही सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि ज्ञेय तो विशेषरूप से अनन्त हैं और वे आगम के विषय नहीं हैं जैसे कि वे अनुमानादि के विषय नहीं हैं कि जिससे आप सांख्य सम्पूर्ण मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होने से केवलज्ञान का आविर्भाव सम्भावित कर सकें अर्थात् नहीं कर सकते हैं । "स्तोक तत्त्वज्ञान से मोक्ष हो जाती है" यह कथन भी इसी उपर्युक्त कथन से निराकृत कर दिया गया है, अन्यथा बहुत से मिथ्याज्ञान से बन्ध का प्रसंग आ जावेगा । Jain Education International 1 इति सांख्यो नय प्रसज्यार्थं जातामावस्वरूपं प्रतिपाद्येदानीं पर्युदासस्वरूपं प्रतिपादयति । दि० प्र० । 2 धर्मेण चोर्द्धगमनम् । इति पा० । दि० प्र० । 3 दर्शनचारित्रानपेक्षेण । व्या० प्र० । 4 परागमादिजनितम्। दि० प्र० । 5 स्याद्वाद्याह यदुक्तं सांख्येन विपर्ययो नाम मिथ्याज्ञानं द्विविधं तदप्यसत्यं कुतः केवलिनोभावप्रसङ्गात् = कथं केवलिनोभाव इति प्रश्ने अग्रे स्वयमेवोत्तरं दत्तम् । दि० प्र० । 6 जातितैमरिक मिथ्याज्ञानस्य । ब्या० प्र० । 7 प्रवर्त्तनात् । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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