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________________ ४२४ ] अष्टसहस्री [ स० १० कारिका ८७ व्यवस्था बुद्धिशब्दयोयुज्यते, स्वपरपक्षसाधनदूषणात्मनोस्तथा प्रतीतेः । तदेवं परमार्थतः सन्बहिरर्थः, साधनदूषणप्रयोगात् । इत्येकलक्षणो हेतुः प्रवर्तते । न चात्रकलक्षणमसिद्धं, सत्येव बहिरर्थे परमार्थतो हेतोरुपपत्तेस्तथोपपन्नत्वस्य प्रधानलक्षणस्य सद्भावात् । अन्यथा' स्वप्नेतराविशेषातिक केन साधितं दूषितं च ? इति कुतः 'संतानान्तरमन्यद्वा' स्वसन्तानक्षणक्षयवेद्याद्याकारशून्यत्वं साधयेत् ? बहिरर्थस्य वास्तवस्य ग्राह्यलक्षणस्याभावे हि साधनदूषणप्रयोगस्य हेतोः संभवे स्वप्नजाग्रदवस्थाभाविने तत्प्रयोगयोविशेषासिद्धिः । ततः किंचिज्ज्ञ इस प्रकार से बुद्धि एवं शब्द के होने पर सत्य एवं असत्य की व्यवस्था की जाती है क्योंकि स्वपक्ष का साधन एवं परपक्ष का दूषण उसी प्रकार से हो प्रतोति में आता है। अतएव बाह्य पदार्थ परमार्थ से सत रूप हैं क्योंकि साधन एवं दूषण का प्रयोग देखा जाता है। इस प्रकार से अविनाभाव रूप एक लक्षण वाला हेतु प्रवृत्त है । इस अनुमान में एक लक्षण रूप अविनाभाव असिद्ध भी नहीं है क्योंकि परमार्थ से बाह्य पादर्थ के होने पर ही हेतु बनता है, इस हेतु में "तथोपपन्नत्व" रूप प्रधान लक्षण विद्यमान है अर्थात् ग्राहक ज्ञान की अपेक्षा से ग्राह्य रूप अपर ज्ञान बाह्य अर्थ हो जाता है। घटादि बाह्य पदार्थ तो बाह्य रूप से प्रसिद्ध ही हैं अतः हेतु अविनाभाव रूप है क्योंकि साध्य के होने पर ही जो हेतु होता है वह दो भेद रूप है-एक अन्यथानुपपन्नरूप, दूसरा तथोपपन्नरूप । तथोपपन्नरूप लक्षण इस हेतु में विद्यमान है । अन्यथा यदि बाह्य पदार्थ का अभाव होने पर भी साधन एवं दूषण का प्रयोग होवे तब तो स्वप्न और जाग्रत अवस्था समान हो जाने से किस पुरुष के द्वारा अथवा किस अनुमान के द्वारा किसको साधित एवं दूषित किया जावेगा? इस प्रकार से संतानान्तर को अथवा अन्य को कैसे सिद्ध करेंगे? स्वसंतान का क्षणिकत्व वेद्याद्याकार शून्यत्व को भी आप कैसे सिद्ध कर सकेंगे ? ग्राह्य लक्षण वास्तविक, अंतर्जेय, बहिर्जेय रूप बाह्य पदार्थ के अभाव में “साधन दूषण प्रयोगात्" हेतु ही असम्भव है। अतः स्वप्न एवं जाग्रत अवस्था में होने वाले साधन एव दूषण का प्रयोग समान रूप ही सिद्ध हो जायेगा। पुनः आपका विज्ञानाद्वैतमात्र तत्त्व किस सहोपलम्भादि स्वार्थानुमान से सिद्ध किया जा सकेगा? अथवा परार्थानुमान रूप वचन से भी पर के प्रति कैसे कहा जा सकेगा ? अथवा स्वसंवेदनाद्वैत स्वत 1 वक्ष्यमाणप्रकारेण । ब्या० प्र० । 2 बहिरर्थाभावे । दि० प्र०। 3 परसन्तानम् । दि० प्र०। 4 स्वसन्तानम् । दि० प्र० 1 5 ज्ञेयलक्षणस्य परमार्थभूतबहिरर्थाभावेपि स्वसाधनपरदूषणप्रयोगस्य हेतोः संभवे सति स्वप्नजाग्रदवस्थाजातयोः साधनदूषण प्रयोगयोविशेषो न सिद्धयति यतः तस्मात् यथा संविदद्वैतं स्वसंवेदनप्रत्यक्षात् न साधितं तथा सहोपलम्भनियमादिति स्वार्थानुमानेन कृत्वा केनापि विज्ञप्तिमात्रं कि साधितं स्यादपितु नावचनात्मना परार्थानमानेन कृत्वा परं प्रतिवादि ज्ञप्तिमात्रं किम् । केनापि साधित स्यादपितु न। कस्मात् यथा स्वप्नस्य तथा विज्ञप्तिमात्रसाधनस्यानुमानप्रमाणस्यावस्तुग्राहकत्वात् । दि० प्र०। 6 भाष्यस्थितान्य शब्दार्थोयम् । दि० प्र० । 7 भाविनोः । इति पा० । दि०प्र०। 8 असिद्धिर्यतः । दि० प्र०।१कि विज्ञप्तिमात्रम् । इति पा० । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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