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________________ जीव के अस्तित्त्व की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ४१६ पदार्थकाच्छब्दस्य 'प्रतिबिम्बकः स्यात् । ततस्रयोर्थास्तिसृणां संज्ञानामवगम्यन्ते 'तत्प्रतिबिम्बकबोधानां त्रयाणामेव भावात् । तदनेनाचार्यो हेतुव्यभिचाराशङ्का' प्रत्यस्तमयति', बुधधादिसंज्ञानां तिसृणामपि स्वव्यतिरिक्तवस्तुसंबन्धदर्शनात् तबुद्धीनां च तिसृणां तन्निर्भासनात्तद्विषयतोपपत्तेः। सामान्यतो जीवशब्दस्य धर्मित्वात् स्वव्यतिरिक्तार्थस्य च सबाह्यार्थत्वस्य साध्यत्वाद्व्यभिचारविषयस्यासत्त्वादव्यभिचारी हेतुः । ___ ननु च विज्ञानवादिनं प्रति संज्ञात्वादित्यसिद्धो हेतुः, संज्ञाया विज्ञानव्यतिरेकेणासत्त्वात् । दृष्टान्तश्च साधनविकलो, हेतुशब्दस्य तदाभासवेदनादन्यस्याविद्यमानत्वात् । इस श्लोक के द्वारा आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी हेतु के व्यभिचार दोष की शंका को अस्त कर देते हैं। बुद्धि आदि के वाचक तीनों नामों का भी अपने से व्यतिरिक्त वस्तु से सम्बन्ध देखा जाता है एवं उन बुद्धि आदि तीनों में भी उस बुद्धि आदि का प्रतिभास होने से वे बुद्धि आदि अर्थ उन शब्दों के विषय बन जाते हैं इसलिये हमारा हेतु अव्यभिचारी है। सामान्य से जीव शब्द धर्मी है। अपने से व्यतिरिक्त अर्थरूप बाह्यार्थ सहितपना साध्य है। व्यभिचार का विषय न होने से 'संज्ञात्वात्' यह हेतु अव्यभिचारी-निर्दोष है। उत्थानिका-हम विज्ञानाद्वैत वादी के प्रति यह आपका "संज्ञात्वात्" हेतु असिद्ध है क्योंकि विज्ञान से भिन्न कोई संज्ञा ही नहीं है। आपका दृष्टांत भी साधन विकल है क्योंकि 'हेतु शब्द' तदाभास वेदन रूप है । ज्ञान से भिन्न अन्य कोई हेतु शब्द है ही नहीं। संज्ञाभास ज्ञान को हेतु मानने पर तो शब्दाभास स्वप्नज्ञान से हेतु व्यभिचारी हो जावेगा अर्थात् संज्ञा के अवभासन में जो ज्ञान है वह संज्ञावभासन ज्ञान है “जीव शब्द बाह्यार्थ सहित है क्योंकि संज्ञाभास-शब्दाकार ज्ञानरूप है।" इसमें "संज्ञाभास ज्ञानत्वात्" है क्योंकि शब्दाकार स्वप्नज्ञान में 1 प्रकाशकः । दि० प्र०। 2 बोधः प्रजायते स एव तस्यार्थः स्यादिति सम्बन्धः कार्यः । दि० प्र०। 3 अर्थाभिधानप्रत्ययरूपाः । दि० प्र०। 4 पृथग्भूतानाम् । दि० प्र०। 5 अर्थः। दि० प्र०। 6 बुद्ध्यादित्रय । दि० प्र०। 7 पूर्वकारिकोक्तसंज्ञात्वादिति हेतुः । दि० प्र० । 8 प्रत्यस्तमयन्ते । इति पा० । दि० प्र०। 9 बुद्ध्यादिसंज्ञाजनितः । ब्या० प्र० । 10 अवतारिका=आह संवेदनाद्वैतवादी हे स्याद्वादिन् संज्ञात्वादिति हेतुस्तव असिद्धः कस्मात् । अस्मदभ्युपगतविज्ञानाद्विना द्भिन्नान्या संज्ञा नास्ति यतः = तथा हेतुशब्दवदिति दृष्टान्तः संज्ञात्वादिति साधनेन कृत्वा शून्यः । कस्मात् । विज्ञानवाद्यभ्युपगतहेतुः प्रकाशविज्ञानाद्विनान्यः कश्चिद्धेतुशब्दो न विद्यते यतः= स्याद्वाद्यभ्युपगतसंज्ञात्वादिति अस्मदभ्युपगतसंज्ञाभाससज्ञानत्वस्य हेतुत्वे सति शब्दप्रकाशात्मकस्वप्नज्ञानेन कृत्वा तव हेतुर्व्यभिचारी कोर्थः स्वप्नज्ञानेपि संज्ञा वर्तते । सा बाह्यार्थास्ति इति कश्चित्संवेदनवाद्याह तं प्रतिस्वामिभिः प्रतिपाद्यते । दि० प्र०। 11 अवभासः। हेतु शब्दकारः । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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