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________________ [ स. प. कारिका ८४ ४१४ ] अष्टसहस्री 'अनादिवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठितः । शब्दार्थस्त्रिविधो धर्मो "भावाभावोभयाश्रितः'3 इति, तत्त्वतो 'भावाश्रयत्वाभावे वासनोद्भूतभावाश्रयत्वानुपपत्तेः सर्वत्रानुभवपूर्वकत्वाद्वासनायाः परम्परया वस्तुप्रतिबन्धात् । पूर्वपूर्ववासनात एवोत्तरोत्तरवासनायाः समुद्भवादनादित्वादवस्त्वाश्रयत्वमेवेति चेन्न, शब्दवासनाया अप्यनादित्वे1 परार्थानुमानशब्दवासनायाः12 साधनस्वलक्षणदर्शननिमित्तकत्वविरोधात् । 14त्रिरूपहेतुवचनस्य परम्परया धूमादिवद्वस्त्वाश्रयत्वे हेतुशब्दवज्जीवशब्दस्य भावाश्रयत्वं युक्तम् । भावश्चात्र हर्षविषादाद्यने श्लोकार्थ- अनादिकालीन वासना से उत्पन्न हुये विकल्प से परिकल्पित रूप ही शब्दार्थ है । उस शब्दार्थ के धर्म तीन प्रकार के हैं भावाश्रित, अभावाश्रित एवं उभयाश्रित अर्थात् घट लक्षण शब्द में घट लक्षण अर्थ का आश्रय है पर रूप पटादि से अभाव संभव है एवं भावाभाव रूप उभयाश्रित है ॥१॥ यह कथन ठीक नहीं है यदि आप बौद्ध वास्तव में शब्द में भावाश्रय का अ मानोगे तब तो वासना से उत्पन्न हये भी भाव का आश्रय बन नहीं सकता है। क्योंकि वासना तो सर्वत्र अनुभवपूर्वक ही होती है। एवं अनुभव परंपरा से अर्थ से प्रतिबन्ध (अविनाभाव) रूप है। . बौद्ध-पूर्व-पूर्व की वासना से ही उत्तर-उत्तर वासना उत्पन्न होती है वह वासना अनादि है इसलिये वह अवस्तु-अभाव का ही आश्रय लेती है। जैन-ऐसा नहीं कहना। "इस अर्थ का वाचक यह शब्द है।" इस शब्द वासना को भी यदि आप अनादि मान लेंगे तब तो परार्थानुमान रूप शब्द वासना साधन एवं स्वलक्षण दर्शन में निमित्त नहीं हो सकेगी क्योंकि वह वासना अनादि होने से अवस्तु का आश्रय लेने वाली है। यदि आप तीन रूप वाले हेतु शब्द को परंपरा से धूमादिवत् वस्तु का आश्रय लेने वाला मानते हो तब तो हेतु शब्द के समान जीव शब्द को भावाश्रित मानना युक्त ही है। और इस लोक 1 परिकल्पितः । ब्या० प्र० । 2 अभावात्खरविषाणरूपाच्यावृत्त्याघटस्य भावरूपत्वं भावान्तरव्यावृत्त्या घटस्याभावरूपत्व मुभयव्यावृत्यानुभयरूपत्वम् । दि० प्र० । 3 सन् । दि० प्र० 1 4 वास्तवार्थस्यानुपपद्यमानत्वादेवानादिवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठितार्थः परिकल्प्यते सौगतेन तन्निरस्तमेव प्रत्यक्षादिवच्छब्दस्यापि वास्तवार्थस्य सथितत्वात्तथापि प्रकारान्तरेण दूषयन्ति तत्त्वत इति । दि० प्र०। 5 अर्थे । ब्या०प्र०। 6 संस्कार । ब्या० प्र०। 7 संबन्धात् । ब्या० प्र०। 8 माह सौगत: पूर्वपूर्ववासनात उत्तरोत्तरवासना जायमाने ततस्तस्यामनादित्वं ततोवस्थाश्रयत्वमिति चेन्न । दि० प्र० । 9 वासनाया: । ब्या० प्र०। 10 शब्दवासनाप्यनादिश्चेत्तदा शिष्यादिप्रतिबोधनार्थं सर्वं क्षणिक सत्त्वात् । इत्याद्यनुमानशब्दवासनायाः साधनत्वं क्षणक्षयिरूपवस्तुदर्शननिमित्तं स्यादिति विरुद्धयते। दि०प्र० । 11 न केवलमर्थवासनाया: । दि० प्र० । 12 रूप । ब्या० प्र०। 13 पक्षे धर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षाद्वयावत्तमिति सोगताभ्युपगतधूमादिहेतुशब्दवत् पारम्पर्येण वस्त्वाश्रयत्वे सति । यथा हेतुशब्दस्य तथा जीवशब्दस्य स्वाश्रयत्वं युक्तमेव = भावः क इत्युक्त आह अत्र जीवशब्दस्य स्वार्थत्वव्यवस्थापन्नानुमाने हर्षाद्यनेकरूपपर्यायः । आत्माममात्मानं प्रतिवेद्यः प्रतिशरीरं कथञ्चिद्धिन्नो त्यागयोग्यो भाव आत्मानं जीवं निराकुर्वन्तं सौगतादिकं प्रति बोधयतीति पूर्यतां प्रयासेन । दि० प्र०। 14 अनेकाकाराश्च ते विवत्तश्चि हर्षविषादादयः अनेकाकारविवर्तस्य । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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