SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव के अस्तित्त्व की सिद्धि ] तृतीय भाग त्र्यादभिधानव्यभिचारोपलम्भे', तदितराध्यक्षानुमानकारणसामग्रीशक्तिवैचित्र्यं पश्यतां कथमाश्वासः स्यात् ? तस्मादयमक्षलिङ्गसंज्ञादोषाविशेषेपि क्वचित्प्रत्यक्षेनुमाने च परितुष्यन्नन्यतमप्रद्वेषेणेश्वरायते, परीक्षाक्लेशलेशासहनात् । ननु चाभावोपादानत्वात्तदन्यतमायां संज्ञायां प्रेद्वेषेण परीक्षक एव, न पुनरीश्वरायते, तस्य परीक्षाऽक्षमत्वादिति चेन्न, तस्याः सर्वथा भावोपादानत्वाभावेऽभावोपादानत्वासिद्धेः । सर्वत्र भावोपादानसंभवे हि समाख्यानामितरोपादानप्रक्लुप्तिः। एतेनैतदपि प्रत्युक्तं यदुक्तं सौगतेन । - जैन-तब तो इतर शब्द में भी उन शब्दों की विशेष परीक्षा मानी जावे, क्योंकि कार्य एवं शब्द में कोई अन्तर नहीं है। रागादिमान वक्ता के अभिप्राय की विचित्रता से शब्दों में व्यभिचार के हो जाने पर उस शब्द सामग्री से इतर-भिन्न प्रत्यक्ष एवं अनुमान के कारण सामग्री की शक्ति विचित्रता को देखते हुये-मानते हुये आप बौद्धों के यहाँ प्रत्यक्ष एवं अनुमान में कैसे विश्वास हो सकेगा? इसलिये आप सौगत अक्षलिङ्ग और संज्ञा में अपने अर्थ के व्यभिचार लक्षण दोष के समान होने पर भी किसी निविकल्प प्रत्यक्ष एवं अनुमान में संतुष्ट होते हुये किसी एक में प्रद्वेष करने से ईश्वर के समान आचरण कर रहे हैं क्योंकि परीक्षा के क्लेश के लेश को सहन करने में आप समर्थ नहीं हैं। बौद्ध-अन्यापोह रूप उपादान-आश्रय जिसका है ऐसे अभाव रूप उपादान के होने से अक्ष, लिंग, संज्ञा में से किसी एक संज्ञा में प्रद्वेष करने से हम लोग परीक्षक ही हैं, किन्तु ईश्वर के समान नहीं हैं क्योंकि ईश्वर तो परीक्षा को सहन करने में असमर्थ ही है। जैन-ऐसा नहीं कहना। सर्वथा-स्वरूप एवं पर रूप दोनों के द्वारा भी यदि संज्ञा (नाम) भाव रूप उपादान वाली नहीं है तब तो वह अभाव रूप उपादान वाली भी नहीं हो सकती है क्योंकि सर्वत्र भावरूप उपादान के होने पर ही वे नाम अभावोपादान वाले भी हो सकते हैं। अर्थात् घट लक्षण संज्ञा के द्वारा घट लक्षण पदार्थ का आश्रय संभव होने पर ही पर रूप से पटादि रूप से अभाव संभव है स्वद्रव्य की अपेक्षा से भाव रूप उपादान होने पर ही पर द्रव्य की अपेक्षा से अभाव उपादान घटित हो सकता है अन्यथा नहीं। संकल्पित मोदकों से क्षुधा की निवृत्ति या तृप्ति नहीं होती है किन्तु वह तो वास्तविक बाह्यार्थ से प्रसिद्ध मोदकों से ही होती है। इसी कथन से सौगत द्वारा कथित श्लोक के अभिप्राय का भी निरसन कर दिया है। 1 ता । ब्या० प्र०। 2 इन्द्रियलिङ्ग । ब्या० प्र०। 3 यस्मादेवं तस्मादयं सौगतः प्रत्यक्षानुमानशब्दानां पुरुषावरणलक्षणदोषेण कृत्वा विशेषाभावेपि कस्मिश्चित्प्रत्यक्षज्ञानेऽनुमाने च निश्चिन्वन शब्दस्य प्रद्वेषेण समर्थो भवन्ति कुतः परीक्षादु:खलेशमात्रमपि म सहते यतः । दि० प्र०। 4 परीक्षायामक्षमत्वात् । दि०प्र०। 5 शब्दे संज्ञानाम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy