SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 490
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव की अस्तित्व की सिद्धि ] तृतीय भाग चित्तसंताने' जीवव्यवहार इत्यसारं तस्य निराकृतत्वात् । ततः कर्तृत्वभोक्तृत्वलक्षणेनोपयोगस्वभावेन जीवेन जीवशब्दः सबाह्यार्थ इति साध्यनिर्देशे सिद्धसाधनाभावः " । [ कश्चिद्ब्रूते 'संज्ञात्वात्' हेतु विरुद्धस्तस्य समाधानं कुर्वति जैनाचार्याः । ] संज्ञात्वादिति हेतुविरुद्धः सबाह्यार्थत्वविरुद्धाभिप्रेतमात्रसूचकत्वेन तस्य व्याप्तत्वादिति चेन्न, संज्ञाया वक्रभिप्रायमात्रसूचकत्वस्य प्रमाणबाधितत्वात् । तथा हि । नात्र संज्ञाभिप्रेतमात्रं सूचयति, ततोर्थक्रियायां नियमायोगात् तदाभासवत् । न च तदयोगः संज्ञायाः, तयार्थं परिच्छिद्य प्रवर्तमानस्यार्थक्रियानियमस्य दर्शनात्करणप्रतिपत्तिवत् करणप्रतिपत्तीनां तदभावेऽनादरणीयत्वात् । ततः संज्ञात्वं जीवशब्दस्य सबाह्यार्थत्वं साधयति हेतु [ ४११ उस प्रकार के अनादि अनन्त चैतन्य से विशिष्ट काय में जो 'जीव' शब्द का व्यवहार है। वह चैतन्य एवं कार्य में अभेद के उपचार से ही है । बौद्ध - क्षणिक रूप चित्त संतान में जीव शब्द का व्यवहार है । जैन - आपका यह कथन भी असार है "अन्येष्वनन्यशब्दोऽयं" इत्यादि कारिका में इसका निराकरण कर दिया है इसलिये कर्तृत्व, भोक्तृत्व लक्षण एवं ज्ञान दर्शन रूप उपयोग स्वभाव वाले जीव से "जीव शब्द" बाह्यार्थ सहित है इस प्रकार साध्य के निर्देश में सिद्ध-साधन दोष भी नहीं आता है । [ बोद्ध कहता है कि 'संज्ञात्वात्' हेतु विरुद्ध है, जैनाचार्य उसका समाधान करते हैं । ] सौगत - "संज्ञात्वात् " यह हेतु विरुद्ध है क्योंकि बाह्यार्थ से सहित विरुद्ध अभिप्राय मात्र को सूचित करने वाले मायादि शब्दों से व्याप्त है । जैन - ऐसा नहीं कहना क्योंकि हेतु रूप संज्ञा केवल वक्ता के अभिप्रायमात्र साध्य की सूचक है यह कथन प्रमाण से बाधित है । तथाहि यहाँ संज्ञा-नाम अभिप्रेत मात्र को (अभिप्राय मात्र को ) सूचित नहीं करता है क्योंकि अभिप्राय मात्र के सूचक नाम से अर्थ क्रिया का नियम नहीं बन सकता है । जैसे मरीचिका में जल संज्ञा तदाभास रूप है एवं उस संज्ञा में उस नियम का अभाव भी नहीं है । उस संज्ञा के द्वारा अर्थ को जान करके प्रवर्तमान हुये पुरुष के अर्थक्रिया का नियम देखा जाता है । जैसे इन्द्रिय सम्बन्धी करण ज्ञान से अर्थ का ज्ञान होता है । 1 अत्रान्तरे छलग्राही सोगतो वदति भूतजनित चैतन्यविशिष्टे जीवव्यवहारो मास्तु तर्हि क्षणिकवतिचित्तसन्ताने जीव इति व्यवहारोस्ति । स्या० वदति हे सोगत इति ते वचो निरर्थम् । दि० प्र० । 2 अनादिनिधनो जीवः सिद्धो यतः । दि० प्र० । 3 चार्वाकं प्रति सिद्धसाधनं नास्ति । व्या० प्र० । 4 इन्द्रियज्ञानानि तस्यार्थक्रिया नियमस्याभावे सति अनादरणीयानि भवन्ति यतः यत एवं ततः संज्ञात्वादिति हेतुः जीवशब्दस्य सार्थत्वं साधयति हेतुशब्दवत् - अन्यथा हेतुशब्दस्य सबाह्यार्थत्वानङ्गीकारे सत्साधनासत्साधनयोविशेषो न संभवति कुतस्तयोरविशेषोबाह्यार्थत्वेन वक्तुरभिप्रायमात्र प्रतिपादकत्वात् । दि० प्र० । = Jain Education International For Private & Personal Use Only = www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy