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________________ जीव के अस्तित्त्व की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ४०६ त्वाद्धोगाधिष्ठानत्वेन रूढः । नापीन्द्रियेषु, तेषामुपभोगसाधनत्वेन प्रसिद्धः । न शब्दादिविषये' ; तस्य भोग्यत्वेन व्यवहारात् । किं तहि ? भोक्तर्येवात्मनि जीव इति रूढिः । 'शरीरादिकार्यस्य चैतन्यस्य भोक्तृत्वमयुक्तं भोगक्रियावत् । [ चार्वाको शरीरमेवं भोक्तारमात्मानं मन्यते, किन्तु जैनाचार्यास्तस्य निराकरणं कुर्वति । ] ननु सुखदुःखाद्यनुभवनं भोगक्रिया। सा ह्यत्रान्वयिनि गर्भादिमरणपर्यन्ते चैतन्ये "सर्वचेतनाविशेषव्यापिनि भोक्तृत्वं,12 शरीरादिविलक्षणत्वात्तस्येति13 14चत्तदेवात्मद्रव्यमस्तु, । शंका-तो किसमें जीव शब्द का व्यवहार है ? समाधान—भोक्ता आत्मा में ही "जीव" इस प्रकार का शब्द रूढ़-प्रसिद्ध है । शरीरादि कार्य रूप चैतन्य को भोक्ता मानना अयुक्त है। जैसे भोग लक्षण क्रिया चैतन्य में घटित नहीं होती है । अचैतन्य-शरीर कृत कार्य होने से वह अचेतन ही है। [ चार्गक शरीर को ही भोक्ता आत्मा मानता है, किन्तु जैनाचार्य उसका निराकरण करते हैं। } शंका-सुख-दुःखादि का अनुभव करना ही भोग क्रिया है। वह क्रिया, अन्वयी गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त, सर्व चेतना विशेष में व्यापी ऐसे चैतन्य में भोक्तृत्व रूप है क्योंकि वह शरीरादि से विलक्षण है। जैन-यदि ऐसी बात है तब तो आप उसे ही आत्मद्रव्य मान लोजिये क्योंकि जन्म से पहले एवं मरण के बाद भी अगली पर्याय में उसका सद्भाव देखा जाता है अन्यथा पृथ्वी आदि के समुदाय रूप शरीर, इंद्रिय एवं विषयों से वह विलक्षण नहीं हो सकेगा और वह पृथ्वी आदि का कार्य पृथ्वी आदि से अत्यन्त विलक्षण आदि नहीं हो सकता है क्योंकि उन पृथ्वी आदि कार्यों का रूपादि से समन्वय देखा जाता है। चार्वाक - चैतन्य भी सत्त्वादि से समन्वित होने से भूत चतुष्टयों से अत्यंत विलक्षण नहीं है । अर्थात् चैतन्य भी सत् है एवं भूत चतुष्टय भी सत् है अतः सत्रूप से दोनों जगह समन्वय है। 1 शरीरस्य । दि० प्र० । 2 इन्द्रियाणाम् । दि० प्र०। 3 रसगन्धादि । ब्या० प्र०। 4 आत्मनः । ब्या० प्र० । 5 विषयस्य । दि० प्र० । 6 एव । दि० प्र०। 7 इष्टमेवैतत् शरीरादिकार्यस्य चैतन्यस्य भोक्तत्वोपगमादित्याशंकायामाहुः शरीरादीति । दि० प्र० । 8 चार्वाक: । दि० प्र० । 9 भोगलक्षणा क्रिया चैतन्यस्य न घटते अचैतन्यकृतकार्यत्वेनाचेतनत्वात् = पृथिव्यादिकार्यभूता या चेतना तस्याः सकाशादेवोत्पद्यते या सर्वा चेतना तद्विशेषव्यापिनि । दि०प्र० । 10 पृथिव्यादीकार्यभूता या चेतना तस्याः सकाशादेवोत्पद्यते या सर्वा चेतना तद्विशेषव्यापिनि । ब्या०प्र० । 11 घटादिज्ञानम् । ब्या० प्र० । 12 च । ब्या० प्र०। 13 विलक्षणं वा तस्य चैतन्यस्येति । इति पा० । दि० प्र० । 14 चैतन्यम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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