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________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ३७३ लेने वाले होने से अतीन्द्रिय धर्मादि पदार्थ के ज्ञाता नहीं हैं क्योंकि वे असर्वज्ञ हैं, किन्तु अहंत. भगवान ही सम्पूर्ण दोष और आवरण के श्रय हो जाने से सर्वज्ञ आप्त कहलाते हैं । जौनाचार्य- यदि आप वेदशास्त्र को अविसंवादक प्रमाण मानें तो शक्य ही नहीं है क्योंकि उसका व्याख्याता रागी है या वीतरागी ? इत्यादि अनेक प्रश्नों से वह अविसंवादक सिद्ध नहीं होता है। यदि व्याख्याता रागी है तो विपरीत अर्थ भी कर देगा। यदि वीतरागी कहो तो आप सर्वज्ञ मानते नहीं हैं इत्यादि रूप से वेद प्रमाणिक नहीं है अचेतन होने से घटादि के समान । आप वेद को प्रमाणिक एवं बौद्धों के पिटकत्रय को अप्रमाणिक भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि जैसे पिटकत्रय के कर्ता बुद्ध हैं वैसे ही आपके वेद के कर्ता भी आपके यहां ही माने हैं । काणाद लोग अष्टक ऋषि को वेद का कर्ता एवं पौराणिक लोग ब्रह्मा को तथा जैन कालासुर को वेद का कर्ता मानते हैं अतः वेद अपौरुषेय नहीं है। यदि आप कहें कि वेद में विशेष शक्तिशाली मंत्रादि पाये जाते हैं। इस पर हम लोगों का यही उत्तर है कि उन मंत्रों की उत्पत्ति हम जैनों के विद्यानुवाद पूर्व से ही हुई है । अनेक रत्न राजा के भण्डार में हैं किन्तु उनकी उत्पत्ति समुद्र, खान आदि से ही हुई है तथैव मंत्रों की उत्पत्ति हमारे जिनागम से ही सिद्ध है। दूसरी बात यह है कि यदि अपौरुषेय से ही वेद प्रमाण हैं तो म्लेच्छों के यहाँ मातृ विवाह, मांसाहार आदि क्रियायें भी अपौरुषेय होने से प्रमाण हो जावें, किन्तु ऐसा नहीं है अतः सर्वज्ञ से ही आगम सिद्ध होता है एवं उसके अर्थ का अनुष्ठान करने से ही सर्वज्ञ बनते हैं इस प्रकार से बीजांकुर न्याय से सर्वज्ञ और आगम की सिद्धि होती है । अतएव १. कथंचित् सभी वस्तुयें हेतु से सिद्ध हैं क्योंकि उनमें इन्द्रिय और आप्त वचन की अपेक्षा नहीं है। २. कथंचित् सभी आगम से सिद्ध हैं क्योंकि इन्द्रिय और हेतु की अपेक्षा नहीं है । ३. कथंचित् उभयरूप हैं क्योंकि क्रम से दोनों की विवक्षा है। ४. कथचित् अवक्तव्य हैं क्योंकि युगपत् दोनों की विवक्षा है। इसी प्रकार से आगे के तीन भंग भी लगा लेना चाहिये । इस अध्याय में वस्तु की सिद्धि के कारणभूत प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीनों की भी प्रसंगानुसार आवश्यकता है यह दिखाया गया है। कोई-कोई केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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