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________________ ३७२ ] अष्टसहस्री [ १० प० कारिका ७८ ब्रह्माद्वैतवादी का पूर्वपक्ष-सभी तत्त्व आगम से ही सिद्ध होते हैं अनुमान से सिद्ध भी वाक्य यदि आगम से बाधित हैं तो अग्राह्य हैं जैसे "ब्राह्मण को मदिरा पीना चाहिये क्योंकि वह द्रव द्रव्य है दूध के समान" । यह अनुमान से सिद्ध है किन्तु 'ब्राह्मणो न सुरां पिबेत्' इत्यादि आगम से बाधित है। परम ब्रह्म भी आगम से हो सिद्ध है क्योंकि प्रत्यक्ष, अनुमान आदि तो अविद्या की पर्याय को ही विषय करते हैं। ___ इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार से तो आपके यहां विरुद्ध अर्थ के कहने वाले सभी आगम ही प्रमाण हो जावेंगे । आगम-आगम से तो सभी समान हैं। यदि अपने आगम समीचीन कहो तो समीचीनता का निर्णय युक्ति-हेतु से ही किया जावेगा तथा अदुष्टकारण से जन्य और बाधा से रहित होने से हो समोचीनता आती है । अतः आपका आगम भी हेतु सापेक्ष ही रहा । दूसरी बात यह है कि श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाले श्रावण प्रत्यक्ष को यदि आप प्रमाण मानेंगे तो प्रत्यक्ष प्रमाण स्वीकार कर लिया । यदि नहीं मानोगे तो बिना सुने वेदों के अर्थ का निश्चय कैसे होगा ? इत्यादि रीति से आपको प्रत्यक्ष एवं प्रमान भो प्रमाण मान ने होंगे। वैशेषिक और सौगत कहते हैं कि -प्रत्यक्ष और अनुमान से ही तत्त्वों की सिद्धि होती है आगम से नहीं। किन्तु यह कयन भो सारहोन है क्योंकि ग्रहों का संचार एवं चन्द्रग्रहण आदि ज्योतिष शास्त्र से ही सिद्ध हैं । अतः हेतु, आगम, प्रत्यक्ष और अनुमान से ही उपेय तत्त्व सिद्ध होते हैं । इन दोनों का निरपेक्ष उभयकात्म्य भी श्रेयस्कर नहीं है। तथैव स्याद्वाद के अभाव में अवाच्य तत्त्व कहना भी असंभव ही है। अब स्याद्वाद को सिद्ध करते हैं । वक्ता के आप्त न होने पर जो हेतु से सिद्ध होता है वह हेतु साधित है एवं वक्ता जब आप्त होता है तब उसके वाक्य से जो सिद्ध होता है वह आगम साधित है एवं जो जिस विषय में अविसंवादक है वह आप्त है इससे भिन्न अनाप्त हैं। अपौरुषेय वेद का खण्डन भीमांसक-वेद अपौरुषेय हैं इसीलिये वे प्रमाण हैं क्योंकि उनके कर्ता का स्मरण नहीं है। उन वेद वाक्यों से ही धर्माधर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान होता है अतः सर्वज्ञ कोई नहीं है। अतएव जैमिनि, ब्रह्मवादी, वेदांती, मीमांसक या अन्य कोई भी अपौरुषेय श्रुतमात्र का अवलम्बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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