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________________ ३३८ ] अष्टसहस्री [ पं० प० कारिका ७३ समानं किंचिदपेक्ष्यान्यथाभावमनुभवदुपलब्धम्' । केवलमपेक्षा बुद्धौ विशेषणविशेष्यत्वं सामान्यविशेषत्वं गुणगुणित्वं क्रियाक्रियावत्त्वं कार्यकारणत्वं साध्यसाधनत्वं ग्राह्यग्राहकत्वं वा प्रकल्प्यते 2 दूरेतरत्वादिवत् । जैनाचार्या : बौद्धस्यापेक्षिक क्रांतं निराकुर्वति । ] इति यद्यापेक्षिकसिद्धि: 1 स्यात्तदा न द्वयं व्यवतिष्ठते नीलस्वलक्षणं' तत्संवेदन चेति, तयोरप्यापेक्षिकत्वाद्विशेषणविशेष्यत्वादिवत् । तथा हि । ययोः सर्वथा परस्परापेक्षाकृता अनंतर होने वाले विकल्प ज्ञान के द्वारा कल्पित किये गये हैं । उस निर्विकल्प ज्ञान में तो वस्तु का स्वलक्षण ही प्रतिभासित होता है । शब्द की अपेक्षा से सत्त्वादि धर्म हैं फिर भी ज्ञेयत्व की अपेक्षा से वे ही धर्मी हैं ऐसा व्यवहार देखा जाता है । एवं उसकी अपेक्षा से ज्ञेयत्व को धर्म मानने पर भी अभिधेय की अपेक्षा से उसमें धर्मोपने का व्यवहार है । और शब्द की अपेक्षा से अभिधेय को धर्म मानने पर प्रमेय की अपेक्षा से उसी में धर्मोपमा प्रसिद्ध । इस प्रकार से कहीं पर भी धर्म अथवा धर्मी की व्यवस्था बन नहीं सकती है । इसलिये धर्म और धर्मी वास्तविक नहीं हैं । किन्तु काल्पनिक ही हैं । नील स्वलक्षण अथवा ज्ञन स्वलक्षण ही प्रत्यक्ष में अवभासित होते हैं और वे किंचित् पीतादि की अपेक्षा करके अन्यथाभावरूप अर्थात् नील स्वलक्षण पीतरूप से अनुभाव में आते हुये उपलब्ध नहीं हैं । केवल अपेक्षा से उत्पन्न हुयी विकल्प बुद्धि में ही विशेषण- विशेष्य, सामान्य-विशेष, गुणगुणी, क्रिया-क्रियावान्, कार्य-कारण, साध्य-साधन अथवा ग्राह्य ग्राहक भाव कल्पित होते हैं, जैसेदूर की अपेक्षा से दूर आदि आपेक्षिक सिद्ध हैं । [ जैनाचार्य बौद्ध के आपेक्षिक एकांत का निराकरण करते 1] जैन - यदि आप बौद्ध विशेषण विशेष्यत्व आदि में आपेक्षिक सिद्धि ही मानोगे तब तो दोनों की भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी । न नील स्वलक्षण ही सिद्ध होगा, न नील संवेदन ही । क्योंकि वे दोनों भी आपेक्षिक ही हैं । विशेषण- विशेष्य आदि की तरह । तथाहि ! जिन दो की सर्वथा परस्पर अपेक्षाकृत सिद्धि होती है उन दोनों की व्यवस्था ही नहीं हो सकती है । जैसे नदी में परस्पर के आश्रय से बहने वाली दो चीजें । उसी प्रकार से नील 1 नीलस्वलक्षणस्य संवित्स्वलक्षणस्य च तात्त्विकत्वं नापरस्य धर्मस्य धर्मिणो वा । ब्या० प्र० । 2 दूरदूरतरत्वादिति । इति पा० । ब्या० प्र० । 3 दूरदूरतरत्वादिकमपेक्षा बुद्धी प्रकल्प्यते यथा । ब्या० प्र० । 4 स्या० वदति सौगत ! यदि धर्मधर्मिणोरापेक्षिकसिद्धिर्भवेत् । तदा नीलस्वलक्षणं नीलसंवेदनञ्च द्वयमपि न व्यवतिष्ठते । कुतस्तयोः नीलस्वलक्षणं नीलसंवेदनयोरपि परस्परसापेक्षिकत्वात् । यथा विशेषणविशेष्यत्वाद्योः सापेक्षकत्वम् । दि० प्र० । 5 स्वाद्वादी वदति कार्यकारणयोरपेक्षाभावे नीलतत्संवेदनयोरपि तदभावो भवतु । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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