SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकांत की सिद्धि । तृतीय भाग [ ३३१ प्रकारान्तरमस्ति, 'यतो जगदनानकं न स्यात् । न हि विरुद्धधर्माध्यासेतराभ्यामन्यन्नानात्वैकत्वस्वरूपम् । नाप्यस्खलबुद्धिप्रतिभासभेदाभेदाभ्यामन्यत्तत्साधनं, यत्प्रकारान्तरं स्यात् । ततः कारिकाद्वयेन सामान्य विशेषात्मानमर्थ संहृत्य तत्रापेक्षानपेक्षकान्तप्रतिक्षेपायाह भगवान् वास्तवमेव । इति स्यान्नानात्वमेव स्वलक्षणभेदात् । स्यादेकत्वमेवाशक्यविवेचनत्वात् । स्यादुभयमेव क्रमार्पितद्वयात् । स्यादवक्तव्यमेव सहार्पितद्वयाद्वक्तुमशक्यत्वात् । स्यान्नानात्वावक्तव्यमेव विरुद्धधर्माध्याससहार्पितद्वयात् । स्यादेकत्वावक्तव्यमेव, अशक्यविवेचनसहार्पितद्वयात् । स्यादुभयावक्तव्यमेव क्रमाक्रमार्पितद्वयात्' । इति सप्तभङ्गीप्रक्रिया दष्टेष्टाविरुद्धावबोद्धव्या पूर्ववत् ।। - - ___ इसीलिये दो कारिकाओं के द्वारा सामान्य विशेषात्मक (द्रव्य पर्याय रूप) पदार्थ का संहार करके उसमें अपेक्षकांत और अनपेक्षकांत का खण्डन करने के लिये भगवान्-श्री संमतभद्राचार्य वर्य वास्तविक स्वरूप को ही (आगे ७३वीं कारिका में) कहते हैं। इस प्रकार से द्रव्य और पर्याय में कथंचित् नानापना ही है क्योंकि उनमें असाधारण स्वलक्षण के भेद से भेद देखा जाता है। दोनों में कथंचित् एकत्व ही है क्योंकि दोनों का पृथक-पृथक् विवेचन करना अशक्य है। ये दोनों द्रव्य और पर्याय कथंचित् उभयात्मक हैं क्योंकि क्रम से दोनों नयों की अर्पणा की जाती है । कथंचित् दोनों अवक्तव्य ही हैं, क्योंकि एक साथ दोनों नयों की अर्पणा करके कहना अशक्य है । कथंचित् द्रव्य पर्याय नाना रूप और अवक्तव्य ही हैं। क्योंकि विरुद्ध धर्माध्यास विवक्षित है और एक साथ दोनों की अर्पणा करना अशक्य है। कथचित् एक रूप और अवक्तव्य ही है क्योंकि दोनों का विवेचन अशक्य विवक्षित और एक साथ दोनों की अर्पणा करने से कहना शक्य नहीं है। कथंचित् द्रव्य पर्याय नाना एक रूप और अवक्तव्य ही हैं । क्योंकि कम से विरुद्ध धर्माध्यास और अशक्य विवेचन की विवक्षा है और एक साथ दोनों को कहना अशक्य है । इस प्रकार से पूर्ववत्, प्रत्यक्ष, परोक्ष, प्रमाण से अविरुद्ध सप्तभंगी प्रक्रिया को समझ लेना चाहिये। 1 कुतः । दि० प्र० । 2 विरुद्धधर्माध्यासं विहाय अन्यत्किञ्चिन्नानात्वस्वरूपं नास्ति तथा स्खलति बुद्धिप्रतिभासभेदं विहायान्यत्नानात्वस्वरूपं नास्त्यस्खबुद्धि प्रतिभासाभावेऽभेदं त्यक्त्वापरमेकत्वस्वरूपं नास्ति यत्प्रकारान्तरं भवेत् । दि० प्र०। 3 अर्थे । ब्या० प्र०। 4 स्वलक्षणभेदात्स्यान्नानात्वमेवाशक्यविवेचनत्वात् स्यादेकत्वमेवेत्यादि सप्तभंग्यात्मक वस्तुवास्तवमेव पारमार्थिकमेव । दि० प्र०। 5 विवक्षित । ब्या० प्र०। 6 नानात्वैकत्व । ब्या० प्र० । 7 नानात्वैकत्वद्वयात् । ब्या० प्र०। 8 अनेन प्रकारेण । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy