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श्री वादिराज ने भी इनके गृद्धीच्छ नाम का उल्लेख किया है
आकाश में उड़ने की इच्छा करने वाले पक्षी जिस प्रकार अपने पंखों का सहारा लेते हैं, उसी प्रकार मोक्ष नगर को जाने के लिये भव्य लोग जिस मुनिश्वर का सहारा लेते हैं, उस महामना अगणित स्वरूप गृद्धपिच्छ नामक मुनिमहाराज के लिये मेरा सविनय नमस्कार हो।'
_श्रवण बेलगोला के एक अभिलेख में गृद्धपिच्छ नाम की सार्थकता और कुन्द कुन्द के वंश में उनकी उत्पत्ति बतलाते हुए उनका "उमास्वाति" नाम भी दिया है । यथा
___ "आचार्य कुन्द कुन्द के पवित्र वंश में सकलार्थ के ज्ञाता उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिन प्रणीत द्वादशांगवाणी के सूत्रों में निबद्ध किया। इन आचार्य ने प्राणि रक्षा के हेतु गृद्धपिच्छों को धारण किया। इसी कारण वे गृद्धपिच्छाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस प्रमाण में गृद्धपिच्छाचार्य को "सकलार्थवेदी" कहकर "श्रुतकेवली सदृर्श" भी कहा है । इससे उनका आगम सम्बन्धी सातिशय ज्ञान प्रकट होता है ।"२
___ इस प्रकार दिगम्बर साहित्य और भभिलेखों का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य, अपरनाम उमास्वामि या उमास्वाति हैं । समय निर्धारण और गुरु-शिष्य परम्परा
नंदिसंघ की पट्टावली और श्रवणवेलगोला के अभिलेखों से यह प्रमाणित होता है कि ये गृद्धपिच्छाचार्य कन्द कुन्द के अन्वय में हए हैं। नंदिसंघ की पट्टावली विक्रम के राज्याभिषेक से प्रारम्भ होती है। वह निम्न प्रकार है
१. भद्रबाहु द्वितीय (४), २. गुप्तिगुप्त (२६), ३. माघनंदि (३६), ४. जिनचन्द्र (४०), ५. कुन्दकुन्दा. चार्य (४६), ६. उमास्वामी (१०१), ७. लोहाचार्य (१४२) ।
अर्थात "नंदिसंघ की पट्टावली में बताया है कि उमास्वामी वि० सं० १०१ में आचार्य पद पर आसीन हुए, वे ४० वर्ष आठ महीने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे । उनकी आयु ८४ वर्ष की थी और विक्रम सं० १४२ में उनके पट पर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए। प्रो० हानले, डा० पिटर्सन और डा. सतीशचन्द्र ने इस पटटावली के आधार पर उमास्वाति को ईसा की प्रथम शताब्दी का विद्वान माना है।"
__ "किन्तु स्वयं नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने इन्हें ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी का अनुमानित किया है।" कुछ भी हो, ये आचार्य श्री कुन्द कुन्द के शिष्य थे, यह बात अनेक प्रशस्तियों से स्पष्ट है । यथा
तस्मादभूद्योगिकुलप्रदीपो, बलाकपिच्छः स तपोमहद्धिः । यदंगसंस्पर्शनमात्रतोऽपि, वायुविषादोनमृतीचकार ॥३॥
१. पार्श्वनाथ चरित १,१६ २. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख सं० १.८, पृ० २१०-११ ३. भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग २, पृ० १५२ ४. वही पुस्तक, पृ० ४११
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