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अनेकांत की सिद्धि ]
तृतीय भाग
[ ३१६
त्वम् । इति व्युत्पादनात्तयोरैक्यमेव वस्तुत्वमिति साध्यस्येष्टत्वान्न साध्यमेव हेतुर्यतो न गमः स्यात् । न चैतदसिद्धमशक्यविवेचनत्वं विवक्षितद्रव्य पर्यायाणां द्रव्यान्तरं नेतुमशक्यत्वस्य सुप्रतीतत्वाद्वेद्य वेदकाकारज्ञानवत् तदाकारयोर्ज्ञानान्तरं नेतुमशक्यत्वस्यैव तस्याभिमतत्वात् । तयोरयुतसिद्धत्वादेवमिति चेत्किमिदमयुतसिद्धत्वं नाम ? न तावद्देशाभेद:, पवनातपयोस्तत्प्रसङ्गात् । नापि कालाभेदस्तत एव । स्वभावाभेद इति चेन्न सर्वथासौ युक्तो विरोधात् । कथंचिच्चेत्तदेवाशक्यविवेचनत्वम् । स एवाविष्वग्भावः समवायइति परमतसिद्धि:, अन्यथा तस्याघटनात् । पृथगनाश्रयाश्रयित्वं पृथग गतिमत्त्वं चायुत सिद्धत्वमित्यपि
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जिन द्रव्य और पर्याय में व्यतिरिक्त-भेद नहीं है वह अव्यतिरिक्त हैं । उन दोनों का भाव अव्यतिरिक्तत्व अर्थात् अशक्य त्रिवेचनत्व है । इस प्रकार का व्युपत्ति अर्थ होने से उन द्रव्य और पर्याय में ऐक्य ही वास्तविक है । वह साध्य रूप से इष्ट है; अत: साध्य ही हेतु नहीं है कि जिससे यह हेतु 'साध्यसम' होकर साध्य का गमक न हो सके । अर्थात् यह हेतु साध्य को सिद्ध करने वाला है ।
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हेतु का यह अशक्य विवेचनत्व अर्थ असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि विवक्षित द्रव्य पर्यायों को द्रव्यातंर रूप प्राप्त कराना अशक्य है, ऐसा ही प्रतीति में आ रहा है । जैसे- वेद्यवेदकाकार ज्ञान को भिन्न ज्ञान रूप पृथक-पृथक करना अशक्य है, तथंव उन द्रव्य और पर्याय को पृथक्-पृथक् रूप से करना अशक्य है । वेद्याकार और वेदकाकार ज्ञान को भिन्न ज्ञान रूप कराना अशक्य है ऐसा आपने स्वयं स्वीकार किया है ।
शंका—वे वेद्य, वेदकाकार अयुत् सिद्ध- अपृथक् रूप हैं; अतः उनका भिन्न द्रव्य रूप होना अशक्य है।
समाधान-
- यदि ऐसा है तब तो यह बताओ, वह अयुत सिद्धत्व है क्या ? अर्थात् क्या यह अयुत सिद्धत्व देश से अभेद रूप है या काल से अभेद रूप है या स्वरूप से अभेद है ?
1 अशक्यविवेचनत्वादिति हेतुर्द्रव्यपर्याययोरैक्यमित्येतस्य व्यस्थापको यतः कुतो न स्यादपितु स्यात् । दि० प्र० । 2 किञ्च स्या० वदति । एतदशक्यविवेचनत्वमसिद्धं न कुतः विवक्षितघटादिद्रव्यात् । तद्घटरूपादिपर्यायाः अन्यस्मित् घटादिद्रव्ये नेतुं शक्यत इति सुप्रसिद्धत्वात् = यथादेवदत्तज्ञाने वर्तमानी वेद्यवेदकाकारी देवदत्तज्ञानाद्यज्ञदत्तज्ञाने प्रापयितुं न शक्येते इत्येतस्य इष्टत्वात् । दि० प्र० । 3 ता । ब्या० प्र० । 4 पृथगाश्रयाश्रयित्वं युतसिद्धिनित्वानाञ्च पृथग्गतिमत्त्वमिति पराभ्युपगतयुतसिद्धिप्रतिषेधरूपतयोक्तमिदमवगन्तव्यम् । ब्या० प्र० । 5 यत एवं ततः वेद्यवेदका - कारज्ञानवदिति दृष्टान्त: : वेद्य वेदका कारयोरैक्यमिति साध्यं प्रतिभासभेदेपि वेद्यवेदकाकारयोर्ज्ञानान्तरं नेतुमशक्यत्वादिति साधनं एवं विधसाध्यसाधनाभ्यां न विकलः = रूपादिद्रव्यं वेत्यपि दृष्टान्तः प्रमाणोपपन्न एव कुतः प्रतीत्याबाधितप्रमाणेन सिद्धत्वात् । दि० प्र० ।
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