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________________ ३१२ ] अष्टसहस्री । च०प० कारिका ७० विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवा'च्यतैकान्तेप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥७०॥ अवयवेतरादीनां व्यतिरेका व्यतिरेकैकान्तौ न वै यौगपद्येन संभविनौ विरोधात् । तथानभिला'प्यतैकान्ते स्ववचनविरोधस्तदभिलाप्यत्वात् । अनभिलाप्यतैकान्तस्याप्यनभिलाप्यत्वे कुतः परप्रतिपादनम् ? 'तद्वचनाच्चेत्कथमनभिलाप्यतैकान्त: ? परमार्थतो न कश्चिद्व यदि कार्य कारण में भेदाभेद उभय का ऐक्य कहो । स्याद्वादमत द्वेषी के यह कैसे होगा सत्य अहो ।। यदि कार्य कारण का भेदाभेद "अवाच्य" कहे कोई । तब "अवाच्य" यह कथन असंगत स्याद्वाद बिन घटे नहीं ।।७०॥ कारिकार्थ-स्वाद्वाद नीति के शत्रुओं के यहाँ अन्यता और अनन्यता रूप उभयकांत्म्य संभव नहीं है: क्योंकि वे दोनों परस्पर विरोधी हैं। यदि कोई कहे कि हम तत्त्व को अन्यत्व, अनन्यत्व से रहित "अवाच्च रूप" मानते हैं तब तो तत्त्व अवाच्य है। इस प्रकार से वाक्य द्वारा कथन भी नहीं कहा जा सकता है ॥७॥ अवयव, अवयवी, गुण, गुणी सामान्य और सामान्यवान में भिन्न और अभिन्न रूप एकांत युगपत संभव नहीं है। क्योंकि परस्पर में इन दोनों का विरोध है। उसी प्रकार से अवक्तव्य रूप एकांत पक्ष में स्ववचन विरोध दोष आता है; क्योंकि "अवाच्य" इस शब्द के द्वारा आप वाच्य रूप कर रहे हैं, अर्थात् कह रहे हैं। अथवा यदि अवाच्य को भी एकांत से अवाच्य ही रखोगे तब तो पर का प्रतिपादन भी आप कैसे कर सकेंगे? यदि आप कहें कि "अवाच्य" इस शब्द से पर को प्रतिपादित किया जाता है तब तो एकांत से "तत्त्व अवाच्य है" यह बात कहाँ रही ? शंका-परमार्थ से कोई पदार्थ या सिद्धान्त वचनों से प्रतिपादित नहीं किया जाता है, किन्तु संवृत्ति से ही प्रतिपादित किया जाता है। समाधान-तब तो आप सौगत को भी स्वयं उस अवाच्यता का ज्ञान कैसे होगा ? सौगत - वस्तु में वाच्यपना उपलब्ध नहीं है ; अतः वस्तु अवाच्य है। 1 भेदाभेदकान्तयोर्दूषणसद्भावादवाच्यतैकान्तो बौद्धः प्रत्यवतिष्ठते । ब्या० प्र० । 2 अवयवि । ब्या० प्र० । 3 भेदाभेद । ब्या० प्र०। 4 सौगतमते । दि० प्र०। 5 स्याद्वादी वदति हे अवाच्यवादिन भवताभ्युपगतोऽनभिलाप्यतकान्तोऽभिलाप्योऽनभिलाप्यो वेति प्रश्नोभिलाप्यत्वेऽनभिलायतकान्तः कुतः न कुतोपि अनभिलाप्यत्वे सति परं शिष्यादिकं प्रति कथनं कुतः न कुतोपि =आह परोऽनभिलाप्यवचनादेव परप्रतिबोधनं घटते इति चेत् स्या० आह । तदानभिलाप्यतैकान्तः कथं न कथमपि । दि० प्र०। 6 अनभिलाप्यस्य । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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