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________________ उभय और अवाच्य के एकांत का खण्डन तृतीय भाग सांख्याभिमत कार्य कारण के एकत्व का निकास सांख्य का कहना है कि महान् अहंकार आदि कार्य है और प्रधान कारण है । इन दोनों में परस्पर में एकत्व है । इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि कार्य कारण में सर्वथा एकत्व के मानने पर तो दोनों में से किसी एक का अभाव हो जायेगा । पुनः बचे हुए शेष का भी अभाव अवश्यंभावी है; क्योंकि उन दोनों में अविनाभाव है एवं यह कार्य है, यह कारण है ऐसी द्वित्व संख्या भी नहीं बनेगी। यदि आप द्वित्व संख्या को संवृत्ति से मानो तब तो वह संवृत्ति तो सर्वथा असत्य ही है । द्वित्व संख्या को संवृत्ति रूप मानने पर प्रधान का ज्ञान भी कैसे होगा ? प्रत्यक्ष तो प्रधान को ग्रहण नहीं करता है । अनुमान एवं आगम से भी ज्ञान नहीं होगा; क्योंकि लिंग एवं शब्द को आपने भ्रांति रूप माना है । Jain Education International [ ३११ कार्य कारण के प्रकार से पुरुष और चैतन्य, आश्रय-आश्रयी हैं । इन दोनों में सर्वथा एकत्व होने से पुरुष में चैतन्य का अनुप्रवेश हो जाने से पुरुषमात्र ही रहेगा या इसी तरह से चैतन्यमात्र ही रहेगा, पुनः एक के अभाव में उसके अविनाभावी दूसरे का भी अभाव हो जाने से सकल शून्यता आ जायेगी; अतएव सांख्याभिमत कार्य कारणादि में सर्वथा एकत्व श्रेयस्कर नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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