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________________ अभेद एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ परमाणवः पररूपं न परिणमन्ते इति मन्यमाने दोषानाह । ] यथैव हि विभागे सति परमाणवोऽसंहतात्मान' स्तथा संघातकालेपि स्युः, सर्वथान्यत्वाभावादन्यत्वे तेषामनित्यत्वप्रसङ्गात् । संघातकाले कार्यस्योत्पत्तेस्तदसमवायिकारणस्वसंयोगस्वभावं संहतत्वं भवत्येवेति चेन्न तेषामतिशयानुत्पत्तौ संयोगस्यैवासंभवात् पृथिव्यादिभूतचतुष्कस्यावयविलक्षणस्य भ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । कर्मणोतिशयस्य 2 प्रसूतेः संयोगः परमाणूनामिति चेन्न, कथंचिदन्यत्वाभावे तदयोगात् । क्षणिकत्वात्परमाणूनामदोष इति चेत्तथापि कार्य [ ३०१ स्वभाव रूप अभेदैकांत होवें । क्यों ? क्योंकि परमाणु नित्य हैं । परमाणु नित्य क्यों हैं ? तो द्वयणुक आदि सभी अवस्थाओं में इनमें एकत्व का अभाव है । परमाणु में सर्वथा अपरिणमन स्वभाव है ऐसा जो कहता है उसके प्रति आचार्य इस कारिका का प्रतिपादन करते हैं । परमाणुओं में अभेद एकांत को स्वीकार करने पर जैसे विभाग में वे मिलते हैं वैसे ही संघात स्कंध अवस्था में भी वे अमिलन स्वभाव वाले ही रहेंगे । ऐसा होने पर क्या दोष होगा ? ऐसा होने पर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इनकी व्यवस्था भ्रांत हो जावेगी । यहाँ तात्पर्य यह है कि बोद्ध परमाणुओं को सर्वथा पृथक-पृथक मानता है । उसका कहना है कि चाहे घट हो सबके परमाणु बालू के कण के सदृश पृथक-पृथक हैं। एक-दूसरे का स्पर्श तक नहीं करते हैं । “तान् मिश्रयति कल्पना" उनको मिश्रित बताने वाली कल्पना है । अत: बौद्ध इन परमाणुओं को अन्य रूप परिणत होना नहीं मानते हैं । वे परमाणुओं को एक स्वरूप ही मानते हैं । वैशेषिक परमाणुओं को सर्वथा नित्य मानता है । सौगत के यहाँ परमाणुओं को नित्य मानने का सवाल ही नहीं है । यहां जो सौगत के द्वारा परमाणु को नित्य कहलाया गया है वह वैशेषिक के मतानुसार ही है । [ परमाणु पररूप परिणमन नहीं करते हैं, ऐसा मानने में दोषारोपण करते हैं । ] जिस प्रकार से विभाग के होने पर सभी परमाणु परस्पर में असंबंधित हैं । उसी प्रकार से संघात-काल-स्कंध अवस्था में भी असंबंधित ही रहना चाहिये। क्योंकि सर्वथा उन परमाणुओं में अन्यत्व भिन्न स्वरूप परिणमन करने का अभाव है । और यदि अन्य स्वरूप परिणमन करना मानेंगे तब तो वे परमाणु अनित्य हो जायेंगे । बौद्ध - स्कंध के काल में कार्य की उत्पत्ति होने से असमवायि कारण स्व-संयोग स्वभाव संहत रूप होता ही है । अर्थात् बौद्ध कहता है कि परमाणु अनित्य भले ही हो जावें किन्तु परिणामी नहीं 1 विरलस्वभावाः । दि० प्र० 12 अत्राह वैशेषिकः क्रियायाः सकाशादतिशय उत्पद्यते । अतिशयोत्पादात् परमाणूनां संयोगः संभवतीति चेत् । स्या० आह एवं न कुतः परमाणूनां कथञ्चिद्भेदाभावे तस्यातिशयोत्पादस्याघटनात् = पुनराह वै० । अहो परमाणूनां क्षणिकत्वादतिशयोत्पत्ती दोषाभाव इति चेत् । दि० प्र० । 3 तथा कार्यकारणादेः । इति पा० । दि० प्र० । " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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