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________________ २९८ ] अष्ट सहस्री [ च० ५० कारिका ६६ जैनाचार्य का परिहार- इस प्रकार से कार्य कारणादिकों में एकांत से भिन्नता मानने पर तो आपसे हम प्रश्न करते हैं कि एक कार्य द्रव्य वस्त्र अपने तंतु लक्षण कारण आधार में एक देश से रहता है या सर्व देश से । यदि एक देश से मानों तब तो शक्य नहीं । कारण वह अवयवी वस्त्र निष्प्रदेशी निरंश है । यदि दूसरा पक्ष लेवो तब एक वस्त्र कार्य अपने अवयव तंतुओं में सम्पूर्णतया रहने से वह वस्त्र तंतु समूह के समान अनेक हो जायेगा । अर्थात् जितने अवयव तंतु हैं उतने ही वस्त्र होंगे। क्योंकि प्रत्येक अवयवों में वह अवयवी पूर्ण पूर्ण रूप से हैं। तथैव जितने संयोगी हैं उतने ही संयोगादि गुण हो जायेंगे । एवं जितने सामान्यवान् पदार्थ हैं उतने ही सामान्य हो जायेंगे। यदि आप अवयवी में प्रदेश कल्पना करेंगे तब तो वस्त्र तंतुओं से भिन्न ही है । उस वस्त्र के अंशों की कल्पना से यहाँ एक देश से रहते हैं। या सर्व देश से ? इत्यादि अनेक दोष आ जायेंगे। यदि आप ऐसा कहें कि एक अवयवी वस्त्र अपने अवयवों में एक देश या सर्वदेश से नहीं रहता है । किन्तु समवाय से रहता है। तब तो समवाय में ही तो विवाद पड़ता है । अवयवों में अवयवी एक देश से समवाय सम्बन्ध करता है या सर्व देश से ? इत्यादि, दोष पूर्ववत् हैं ही। अतः ये कार्य कारणादि भिन्न उपलब्ध नहीं हैं। यदि पात्र में दही के समान पृथक-पृथक् इनको मानों तब तो संयोग सम्बन्ध के पहले पात्र और दही के समान कारण, कार्य उपलब्ध होने चाहिये। किन्तु ऐसे न दिखकर अवयव, अवयवी आदि कथंचित् तादात्म्य रूप ही दिख रहे हैं । तथा हमारे यहाँ एक देश या सर्वदेश से रहने का प्रश्न नहीं होता है । क्योंकि हमने कथंचित् तादात्म्य माना है। यदि इन अवयव, अवयवी आदिकों में सर्वथा भेद मानोगे तब तो देश काल से भी भेद हो जायेगा, पुनः इनको वृत्ति युतसिद्ध पदार्थों की तरह होगी, तब मूर्त कार्यकारण में एक देश का अभाव हो जायेगा। किन्तु देशकाल से अवयवी और अवयवों में अभेद है जैसे आम्र में रूप, रस, गंध, स्पर्श अत्यन्त भिन्न नहीं हैं तथैव परस्पर में भी अत्यन्त भिन्न नहीं हैं, देश काल से अभिन्न हैं। यदि कोई कहे कि आकाश के एक प्रदेश में असंख्यात आदि परमाणुओं का रहना विरुद्ध है तो उसने भी स्याद्वाद को नहीं समझा है । आकाश में अवगाहन गुण विशेष है। जिससे एक प्रदेश में भी असंख्यात अनन्त आदि पुद्गल परमाणु एक स्कंध रूप से परिणत होकर रह जाते हैं । जैसेजल, लवण, सुई, भस्म आदि एकत्र रह जाते हैं किन्तु वे परमाणु परस्पर निरुत्सुक ही स्कंध रूप न होकर एकत्र नहीं रह सकते हैं । इसलिये हम स्याद्वादियों के यहां स्कंधरूप परिणत मूर्तिक परमाणुओं का समान देश बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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