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________________ अभेद एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ २६७ न' चोपचरितसद्भिर्व्यभिचारचोद'नोपपत्तिमती, परमार्थसत्त्वाभावसाधन स्यातिप्रसङ्गात् । इति न कार्यकारणादीनामन्यतैकान्तः श्रेयान्, प्रमाणाभावादनन्यतैकान्तवत् । कारणादिकों में भिन्नता रूप एकान्त मानना श्रेयस्कर नहीं है। क्योंकि अभिनेकांत पक्ष के समान इस भिन्न पक्ष को भी सिद्ध करने के लिये प्रमाण का अभाव है। अर्थात् भिन्नकांत को सिद्ध करने वाला कोई भी प्रमाण नहीं है। यौगाभिमत कार्य कारणादिक के भिन्नत्व का खण्डन योग का पूर्व पक्ष-कार्य-कारण, गुण-गुणी और सामान्य-सामान्यवान् परस्पर में सर्वथा भिन्न-भिन्न ही हैं क्योंकि इनका भिन्न प्रतिभास हो रहा है । यदि आप जैन कहें कि इन कार्य कारणादिकों का अभिन्न देश होने से तादात्म्य है । सो कथन भी गलत है क्योंकि भेद दो प्रकार के हैं। शास्त्रीय और लौकिक । शास्त्रीय देश अभेद तो है नहीं क्योंकि कार्य वस्त्र तंतु आदि अपने कारण देश में है और तंतु अपने कारण कपासादि में है । तथैव गुण-गुणी आदि में भी शास्त्रीय देश भेद सिद्ध है। तथा आकाश, आत्मा का लौकिक देश भेद नहीं है। फिर भी भिन्न ही है। ___ यह भेद तो पूर्व से सिद्ध है। किन्तु आपका तादात्म्य पूर्व से सिद्ध नहीं है । यदि उसे पूर्व सिद्ध मानों तब तो कार्य-कारण, धर्म-धर्मी, आधेय-आधार आदि भेद ही समाप्त हो जायेंगे, कारण कि भेद और अभेद-तादत्म्य शीतोष्ण स्पर्श के समान परस्पर विरोधी हैं। यदि आप दोनों को एक जगह मानोगे तो संकर दोष भी आ धमकेगा। 1 सामान्यादित्रयं तु निःसामान्यमिति वचनात् । व्या० प्र०। 2 उपचरितसभिरर्धस्य सत्तासामान्यादेः सत्त्वं तु स्वरूपतः सत्त्वम् । ब्या० प्र०। 3 कल्पना। दि० प्र०। 4 हेतोः । दि० प्र०। 5 इदानीं जैनो भेदैकान्तपक्षं निरा. करणद्वारेणोपसंहरति कार्यकारणादीनां भेदकान्त: पक्षः श्रेयान साध्यः प्रमाणाभावात् अभेदकान्तवत् । दि०३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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