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________________ मभेद एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ २९५ द्रव्यगुणकर्मणां सत्त्वं न पुनः कूर्म रोमादीनाम् ? इति चिन्त्यम् । कथं च' सत्तासामान्य सर्वथा सम वायासंबद्धं द्रव्यादिषु समवायि न पुनः समवायस्तत्र समवायी समवायान्तरेणासंबद्ध इति बुद्ध्यामहे ? समवायसंबद्धत्वाभावाविशेषात्', सतापि हि समवायेन सामान्यस्यासंबद्धत्वं समवायान्तरेण पुनरसत्ता समवायस्येति तत्सदसत्त्वाभ्यामसंबद्धत्वस्य विशेषयितुमशक्तेः । न च कश्चित्संबन्धः स्वसंबन्धिभ्याम संबद्ध एव तौ घटयितु मलं, संयोगस्यापि स्वसंयोगिभ्यामसंबद्धस्यैव तयोर्घट कत्वप्रसङ्गात् । न चैवमिष्यते सिद्धान्तविरोधात् । ततो!2 [सत्ता सामान्य सतुरूप समवाय से असम्बद्ध है और समवाय असत रूप भिन्न समवाय से असम्बद्ध है अतः दोनों में भेद है । इस प्रकार योग के द्वारा कहने पर जैनाचार्य कह रहे हैं।] सत्रूप समवाय से भी सामान्य असम्बन्धित है और असत् रूप भिन्न समवाय से समवाय असम्बद्ध है, इसलिये उन सत और असत रूप से असम्बन्धित में भेद करना अशक्य है, अर्थात विवक्षित समवाय सत्ता में सत्त्व है, और समवाय में भिन्न समवाय का असत्त्व है। इस प्रकार से सत्-असत् में असम्बन्धित में भेद करना अशक्य है। कोई ऐसा सम्बन्ध भी नहीं है कि जो अपने सम्बन्धियों से सम्बन्धित न होकर ही उन सम्बन्धियों की व्यवस्था करने में समर्थ होवे । अन्यथा संयोग भी अपने दोनों संयोगियों से सम्बन्धित न होकर ही उनको घटित कर देगा किन्तु आप इस प्रकार से स्वीकार तो करते नहीं हैं। क्योंकि आपके सिद्धान्त में ऐसा मानना विरुद्ध है । अर्थात् आपके यहाँ संयोग गुण है और संयोगी गुणी है । गुण-गुणी रूप संयोग-संयोगियों का समवाय है यह आप वैशेषिक का सिद्धान्त है। किन्तु संयोग अपने संयोगियों से असम्बन्धित हो ऐसा आपके यहाँ है नहीं। इसलिये कार्य-कारण में, गुण-गुणी में या सामान्य-सामान्यवान में एकांत रूप से भिन्नता स्वीकार करने पर तद्भाव-कार्य, कारण आदि भावयुक्त ही नहीं है । जैसे कि अकार्य कारण भाव में कार्य कारण भाव सिद्ध नहीं है । एवं समवाय से तथा अर्थान्तर भाव के नियम से भी तभाव (कार्य कारणादिभाव) युक्त नहीं है । उसी प्रकार से समवाय भी उनको परस्पर में घटित करने वाला नहीं है, क्योंकि उस प्रकार अर्थान्तर (कालादि) के समान कालादि सर्वथा वे कार्य कारणादि परस्पर में न सत्त्वम् । ब्या० प्र०। 2 न घटत इति भावः । ब्या० प्र०। 3 ननु च सत्तायाः अर्थान्तरत्वेपि द्रव्यादिष समवायित्वं कूर्म रोमादिषु वैयत्यमिति दृष्टान्तवैधयं परिहरन्नाह । ब्या० प्र०। 4 भा। दि० प्र०। 5 सत् । दि० प्र०। 6 स्वतः समवायस्य प्रवृत्त्यभावात् परतश्चेदनवस्था तदर्थं समवायान्तरेण संबद्धः । ब्या० प्र० । 7 सामान्यस्य समवायस्य च । ब्या० प्र०। 8 समवायः । ब्या० प्र०। 9 तन्तुपटाभ्याम् । ब्या० प्र० । 10 अन्यथा । ब्या० प्र०। 11 संयोगिनो घटत्वं नेष्यते । ब्या० प्र० । 12 यत एव ततः कार्य कारणादीनां सर्वथा भिन्नत्वे कार्यकारणभावो युक्तो न । यथान्य कार्यकारणादीनां तन्तुघटयोमपटयो: कारणकार्यभावो यूक्तो न । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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