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________________ २६४ ] अष्टसहस्री [ च० १० कारिका ६६ कर्तृकर्मत्वाभावे तान्यात्मानं बिभृयुरिति शक्यं वक्तुं, कर्तरि लिङ्गो 'विधानात्कर्मणि विभक्तिनिर्देशाच्च । स्यान्मतं 'परस्परमसंबद्धानामपि स्वरूपसत्त्वप्रसिद्धेर्थिसमवायसामान्यानामसत्वम् । कूर्मरोमादीनां स्वरूपसत्त्वाभावाच्च' विषमोयमुपन्यासः' इति तदयुक्त', द्रव्यगुणकर्मणां स्वरूपसत्त्वोपगमे सतासमवायस्य वैयत्सिामान्यादिवत्, सामान्यादीनां वा सत्तासंबन्धप्रसङ्गाद्रव्यादिवत्, तेषां स्वरूपसत्त्वानुपगमे कूर्म रोमादिभ्यो विशेषाभावात् सम एवोपन्यास इति निरूपणात् । कथं चार्थान्तर भूनायां सत्तायां समवायवत्सर्वथानभिसंबद्धायां' परस्पर में असंबंधित अर्थ सामान्य और समवाय ये तीनों हैं ही नहीं, एवं असत् रूप ये तीनों कर्ता भी नहीं बन सकते हैं। कोई आत्मा (स्वरूप) भी संभव नहीं है जो कर्म रूप हो सके । और कर्ता, कर्म के अभाव में ये तीनों अपने स्वरूप को धारण करने में समर्थ हैं ऐसा कहना भी शक्य नहीं है। यहां अष्टशतो भाष्य में कत्ती में 'विभृ युः' यह लिंग लकार का विधान है, और कर्म में "आत्मानं" इस द्वितीया विभक्ति का निर्देश है । योग-परस्पर में असंबंधित द्रव्यादिकों का भी स्वरूप से सत्त्व प्रसिद्ध है अतः पदार्थ, सामान्य, समवाय असत् रूप नहीं है । और कछुये के रोमादि का स्वरूप से ही अस्तित्व का अभाव होने से आप जैन का “कूर्म रोमादिवत्" यह उदाहरण विषम है । जैन-ऐसा कहना भी अयुक्त है। क्योंकि द्रव्य, गण और कर्म का स्वरूप से सत्त्व स्वीकार करने पर सत्ता समवाय व्यर्थ है जैसे सामान्यादि । अर्थात सामान्यादिकों का स्वरूप से अस्तित्व स्वीकार करने पर जिस प्रकार से उस सामान्य आदि में सत्ता का समवाय व्यर्थ है । वैसे ही द्रव्य गुण, कर्म यदि स्वरूप से विद्यमान हैं तो उनमें सत्ता का समवाय क्या कर सकता है ? अथवा सामान्यादि में भी सत्ता सम्बन्ध का प्रसंग आ जायेगा, द्रव्यादि के समान। और उन सामान्यादिकों का स्वरूप से सत्त्व नहीं स्वीकार करने पर कूर्म रोमादि से भेद का अभाव है। इसलिये यह हमारा उदाहरण सम ही है । विषम नहीं है। समवाय के समान सर्वथा अनभिसम्बन्धित अर्थांतर भूत सत्ता के स्वीकार कर लेने पर भी द्रव्य, गुण, कर्म सत्रूप हैं किन्तु कूर्मरोमादि सत्रूप नहीं हैं यह बात कैसे बन सकती है ? इसका विचार करना चाहिये। सर्वथा समवाय से असंबंधित सत्ता सामान्य द्रव्यादिकों में समवायी है, किन्तु समवाय नहीं है। उन द्रव्यादिकों में समवायी भिन्न समवाय से असंबद्ध है। इस प्रकार की व्यवस्था हम कैसे समझें ? क्योंकि समवाय से सम्बन्धित न होना दोनों ही जगह समान है। 1 स्वरूपम् । दि० प्र०। 2 कर्तरि । दि० प्र० । 3 बिभृयुरित्यत्र । दि० प्र०। 4 आत्मानमित्यत्र । दि० प्र० । 5 ततश्च । ब्या० प्र०। 6 आ० स्था० हे वै० यदुक्तं त्वया तदयुक्तं कुतः यथा सामान्यादीनां स्वरूपेण सत्त्वमभ्युपगच्छसि तथा द्रव्यगुणकर्मणां स्वरूपसत्त्वाभ्युपगमे कृते सति प्रागऽपतः सत्तासमवायात कार्यस्योत्पत्तेः इति सत्ता दायो व्यर्थ: स्यात यतः । दि० प्र०। 7 द्रव्यगुणकर्मसु । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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