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________________ २८८ ] अष्टसहस्री [ च० प० कारिका ६५ भावस्याभावपरतन्त्रत्वमपि तदविच्छेदसाधनं, पररूपेणासत एव भावस्य प्रतीतेरन्यथा सर्वसार्यप्रसङ्गाद्भावविशेषव्यवस्थितिविरोधात् । नन्वभावस्यैकत्वे कार्यस्य जन्मनि प्रागभावाभावे प्रध्वंसेतरेतरात्यन्ताभावानामप्यभावप्रसङ्गादनन्तत्वसर्वात्मकत्वात्यन्ताभावापत्तिः । प्रध्वंसस्य 'चाभावेनुत्पन्नस्य कार्यस्य प्रागभावस्याप्यभावादनादित्वप्रसङ्गः प्राक् पश्चादितरेतरात्यन्तविशेषणानुपपत्तिश्च तदभेदात् । इति कश्चित् तस्यापि कथं सत्त्वैकत्वे समवायैकत्वे च कस्यचित्सत्तासमवाये सर्वस्य स न भवेत् ? तथा सति 'भावस्योत्पत्तेः प्रागपि प्रध्वंस यौग-अभाव को यदि आपने एक रूप मान लिया तब तो जब कार्य का जन्म होगा तब प्रागभाव का अभाव हो जाने पर प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यंताभाव के भी अभाव का प्रसंग आ जायेगा। पुन: अनंतत्त्व, सर्वात्मकत्व और अत्यंताभाव की आपत्ति हो जायेगी। अर्थात प्रध्वंसाभाव के अभाव में सभी कार्य अनन्त हो जायेंगे, इतरेतराभाव के अभाव में सभी वस्तुयें सर्वात्मक हो जायेंगी तथा अत्यंताभाव के अभाव में सभी वस्तु में सर्वसंकरदोष आ जाता है या सभी वस्तुओं का अत्यन्त रूप से अभाव हो जायेगा। प्रध्वंस का अभाव होने पर अनुत्पन्न कार्य रूप प्रागभाव का भी अभाव हो जाने से सभी कार्य अनादि हो जायेंगे। अर्थात् मृत्पिड के प्रध्वंस बिना घट उत्पन्न नहीं होता है। अतः मृत्पिड में घट के प्रागभाव का भी अभाव हो जाने से सभी कार्य अनादि हो जायेंगे। पहले तथा पीछे और इतरेतर और अत्यंत रूप विशेषण नहीं बनेंगे क्योंकि उन सभी अभावों में अभेद हैं । जैन-इस प्रकार से कहने वाले आपके यहां भी सत्त्व को एक रूप और समवाय को एक रूप मानने पर किसी विवक्षित कार्य में उस सत्ता का समवाय स्वीकार करने पर अतीत और अनागत रूप सभी कार्यों में वह कैसे नहीं हो सकेगा? उस प्रकार से सभी में सत्ता का समवाय हो जाने पर भाव की उत्पत्ति के पहले भी प्रध्वंस के समय में भी अभावांतर-इतरेतराभाव और अत्यंताभाव में भी अत्यंत रूप से सत्त्व सिद्ध हो जाने पर आपके यहां भी प्रागभावादि भेद की व्यवस्था कैसे हो सकेगी ? और यदि आप ऐसा कहें कि प्रत्यय विशेष से उन अभावों की व्यवस्था हम कर लेंगे, तब तो सत्ता और समवाय में भी भेद व्यवस्था वैसे ही प्रत्यय विशेष से मान लीजिये क्या बाधा है ? क्योंकि प्रध्वंस से पहले कार्य में सत्ता समवाय असिद्ध नहीं है। तथा प्रागभाव से अनंतर एवं इतर से इतर पदार्थ में इतरेतराभाव भी प्रसिद्ध नहीं है अर्थात् इस प्रकार के प्रत्यय विशेष 1 घटकाले । ब्या०प्र० । 2 सर्वेषामभावानामुपसंहारं करोति । ब्या० प्र०। 3 एकत्वात् । ब्या० प्र०। 4 स्या० वदति एवं वादिनोपि सत्ताया एकत्वे समवायस्यैकत्वे च सति कस्यचिद् घटादेः प्रागभावकाले सत्तासमवाये सति सर्वस्य कार्यस्य समवायः कथं न स्यात् । अपितु स्यादेव तथा सति किमायातं प्रागभावप्रध्वंसाभावकालेप्यभावस्य सर्वथा सत्त्वं सिद्धयति । दि० प्र०।5 कार्यस्य । ब्या० प्र०। 6 का । ब्या०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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