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________________ २८६ ] अष्टसहस्री [ च० प० कारिका ६५ मतं' 'सत्तासामान्यं तावद्रव्यादिषु प्रत्येक परिसमाप्तं, सत्प्रत्ययाविशेषात् । सर्वत्रास्ति च, सत्प्रत्ययाविच्छेदात् । समवायोपि सर्वत्र विद्यते, समवायिनां शश्वदविच्छेदान्नित्यानां, जन्मविनाशवतां' तु केषांचिदुत्पित्सुदेशेषत्पद्यमानानामेव सत्तासमवायित्वसिद्धेः 'निष्ठासंबन्ध' - योरेककालत्वात्' इति वचनात् । प्रकृतदूषणानवकाशः, सत्तासमवाययोः प्रागसत्त्वाभावात् तत्रान्यतश्चागमनस्य सर्वात्मनैकदेशेन वानभ्युपगमात् पश्चाद्भवनानिष्टे: शाश्वतिकत्वाच्च' इति तदेतदपि व्याहततरं, सर्वगतस्य सामान्यस्य समवायस्य चैकस्य स्वाश्रयेषु प्रत्येक परि वैशेषिक-प्रत्येक द्रव्य, गुण कर्म में सत्ता सामान्य परिसमाप्त है क्योंकि इन सभी में सत्प्रत्यय समान रूप से हो रहा है और यह सत्ता सामान्य सर्वत्र है क्योंकि सत्प्रत्यय का विच्छेद नहीं होता है। समवाय भी समवायियों में सर्वत्र रहता है क्योंकि नित्य समवायियों पदार्थों का हमेशा ही अविच्छेद-सद्भाव है। जन्म और विनाशवान उत्पित्सु देशों में उत्पन्न होते हुये किन्हीं अनित्य पदार्थों में ही सत्ता समवायित्व सिद्ध है क्योंकि-निष्ठा और सम्बन्ध का एक काल है ऐसा वचन है। इसलिये पहले नहीं थे, इत्यादि रूप जो प्रकृत में दूषण दिये हैं उनका यहां अवकाश नहीं है। कारण कि कार्योत्पत्ति के पहले सत्ता और समवाय के असत्त्व का अभाव है। 'उस उत्पित्सु प्रदेश में अन्य कहीं से आना' सर्वदेश से अथवा एकदेश से स्वीकार नहीं किया गया है और उत्पित्सु प्रदेश के अनंतर सत्ता और समवाय का होना भी अनिष्ट है क्योंकि ये सत्ता और समवाय शास्वतिक-नित्य हैं । इस प्रकार से आपका जो कथन है वह भी व्याह्वतंतर सर्वगत सामान्य और एकरूप समवाय अपने आश्रय रूप द्रव्य गुण, कर्म में प्रत्येक में परिसामाप्त होते हैं यह बात असंभव है अन्यथा उन सामान्य और समवाय को बहुतपने का प्रसंग आ जायेगा। आश्रयस्वरूप के समान एवं सर्वत्र अविच्छेद रूप से रहने से वे दोनों एक-एक नहीं हैं। उस अविच्छेद की सिद्धि न होने से 1 आहात्र वैशेषिक: हे स्याद्वादिन भवदभिप्रायः किल एवं प्रथमतः सत्तासामान्यं पक्षो द्रव्यगुणकर्मादिष्वर्थेषु परिसमाप्त भवतीति साध्यो धर्मो घटोस्ति पटोस्ति गौरस्ति अश्वोस्तीत्यादिलक्षणसप्रत्ययेन विशेषाभावात्-तथा सत्ता सामान्य पक्ष: सर्वत्रास्तीति साध्यः सः प्रत्ययाविच्छेदात् =तथा समवायः पक्षः सर्वत्र विद्यत इति साध्यो धर्मो नित्यानां समवायिनामर्थानां शश्वदविच्छेदात् । दि० प्र०। 2 निवेदितमनेन च सामान्यस्यकत्वं । ब्या० प्र० । 3 वै० उत्पत्तिविपत्तिमतां केषाञ्चन उत्पत्तुमिक्षु देशेषूत्पद्यमानानामेवार्थानां सत्तासमवायित्वं सिद्धयति यत्तु नित्यानां कुतः विनाशोत्पादयोरेककालत्वात् इति वैशेषिकसिद्धान्तात सर्वात्मना एकप्रदेशेन वा याभिः प्रत्येक परिसमाप्तं पश्चाद्भवनमित्यादीनां स्याद्वादिप्रतिवादिनां दूषणानां सामान्यसमवायोविषये अघटनं कुतः पूर्व सत्ताया अभावात् । कोर्थः सामान्यसमवाययोः पूर्वमेवास्तित्वसद्भावा । पुनः कुतः प्रारब्ध्रदोषानवकाशः । अन्यत्स्थानादन्यत्रकदेशेन सर्वात्मना वा सामान्यं समवायएचागच्छति । अस्माभिरिति च नाङ्गीक्रियते यतः। पुनरपि कुतः सामान्यसमवाययोः पश्चादुत्पादासंभवात्तयोनित्यत्वाच्चेति । दि० प्र०। 4 सत्ता समवायः । ब्या० प्र०। 5 ततश्च । ब्या० प्र०। 6 च । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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