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भेद एकांतवाद का निराकरण ]
तृतीय भाग
श्रयस्य । सामान्याभिधानात्परापरजातिप्रत्ययः । तद्वद्वचनादर्थप्रत्यय इति । क्रियातद्वतोरवयवावयविनोर्गुणगुणिनोविशेषतद्वतो. सामान्यतद्वतोरभावतद्विशेष्योश्चान्यतैव , भिन्नप्रतिभासत्वात् सह्यविन्ध्यवदित्युक्तं भवति । न 'चात्रासिद्धो हेतुः, सांध्यमिणि भिन्नप्रतिभासत्वस्य सद्भावनिश्चयात् । तत' एव न सन्दिग्धासिद्धोऽज्ञातासिद्धो वा । नाप्यन्यतरासिद्धो, वादिप्रतिवादिनोरविवादात् ।
गया है । कारण पद के ग्रहण करने से समवायी, समवायवान् अर्थात् कर्मवान्, अनित्यगुणवान्, पटादि अवयवों का एवं प्रध्वंस के निमित्त का अर्थात् प्रध्वंस के प्रति उपादान कारण घटादि हैं तथा सहकारी कारण मुद्गरादि हैं उन सबका ग्रहण हो जाता है । गुण शब्द से नित्य गुणों की प्रतिपत्ति होती है । गुणी शब्द से गुणों के आश्रयभूत आकाशादिकों का ग्रहण होता है । सामान्य के कथन से पर साम.न्यसत्ता एवं अपर सामान्य उसके अन्तहित गोत्वादि रूप परापर सामान्य का ज्ञान होता है। तद्वत शब्द से अर्थ का ज्ञान होता है । अर्थात् द्रव्य, गुण, कर्म इन तीनों को अर्थ कहते हैं।
क्रिया और क्रियावान्, अवयव-अवयवी, गुण गुणी, विशेष-विशेषवान्, सामान्य-सामान्यवान्, अभाव और तद्विशेष्य इन सभी में भिन्नता ही है क्योंकि उनका भिन्न प्रतिभास पाया जाता है। जैसे-सद्य विंध्य पर्वत । यह कहा गया है। अर्थात् विशेषण रूप प्रध्वंसाभाव और तद्वान् विशेष्य हैं, जैसे घट फूट गया । इत्यादि उन सभी में परस्पर में भिन्नता ही है।
__ इस अनुमान में हेतु असिद्ध भी नहीं है। भिन्नता रूप साध्य धर्मी में भिन्न प्रतिभासत्व हेतु का सद्भाव निश्चित है । इसी कथन से यह हेतु संदिग्धासिद्ध अथवा अज्ञातासिद्ध भी नहीं है । एव अन्यतरासिद्ध भी नहीं है। क्योंकि इस हेतु में वादी और प्रतिवादी इन दोनों को किसी प्रकार का विवाद नहीं है।
1 महासत्ता । अपरघटोयं घटोयमिति विशेषः । दि० प्र० । 2 विशेषज्ञानम् । दि० प्र०। 3 हेतोः । ब्या० प्र० । 4 भिन्नोघट इति। दि० प्र० । 5 भिन्नतयैव । दि० प्र०। 6 अत्रकार्यकारणाद्ययोभिन्नताव्यवस्थापकानुमाने भिन्नलक्षणप्रतिभासत्वादिति हेतुः असिद्धो न । कुतः पक्षे भिन्नप्रतिभासत्वस्य सत्त्वं निश्चीयते यतः । दि० प्र०। 7 हेतोः। दि० प्र०। 8 साध्यमिणि भिन्न प्रतिभासत्वस्य सद्भावनिश्चयादेव । दि० प्र० । 9 असिद्धो न भवति यतः । ब्या० प्र० । 10 अत्राह योगस्य प्रतिवादी कश्चित् । हे योग ! नाना पुरुषज्ञान विषयेण एकेन नर्तक्यादिपदार्थेन प्रतिभासत्वादिति हेतोय॑भिचारोस्तीति चेत् । योगो वदति एवं न कुत एकपुरुषापेक्षया भिन्नप्रतिभासत्वमिति हेतोरस्माभिरङ्गीकरणात् । पुनराह परः हे योग तथाप्यनुक्रमेण एकपुरुषस्यव्यक्ताव्यक्तादि भिन्नलक्षणज्ञानविषयेन एकेनार्थेन व्यभिचारोस्तीति चेत् न । कुतः क्रमो भवतु अक्रमो वा भवतु । लक्षणत्वस्य भिन्न प्रतिभासत्वमिति हेतोरस्माभिरङ्गीकारणात = दुरासन्नानेकपूरुषविषयेणकपादेन । दि० प्र०।
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