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अनेकांत की सिद्धि ]
तृतीय भाग
[ २५१
यौव्ययुक्तं सदिति प्रकाशितं भवति, तदन्यतमापाये ' सत्त्वानुपपत्तेः । प्रत्येकमुत्पादादीनां सत्त्वे' त्रयात्मकत्वप्रसङ्गादनवस्थेत्यपि दूरीकृतमनेन तेषां परस्परमनपेक्षाणामेकशः सत्त्वनिराकरणात् । किं च —
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घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोद माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ ५६ ॥
केवल स्थिति भी नहीं है क्योंकि वह विनाश और उत्पाद से रहित आकाश पुष्प के समान । केवल विनाश भी नहीं है, स्थिति उत्पाद से रहित होने से आकाश पुष्प के समान इस प्रकार की योजना रूप सामर्थ्य से " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" यह सूत्रकार का वचन प्रकाशित हो जाता है । उनमें से किसी एक का अभाव करने पर वस्तु का सत्व ही सिद्ध नहीं हो सकता है ।
“प्रत्येक उत्पादादि तीनों को ही अलग-अलग सत् रूप मानने पर उत्पादादि प्रत्येक को त्रयात्मकपने का प्रसंग आ जाने से अनवस्था आ जायेगी" इस बात का भी खण्डन इसी कथन से अर्थात् उत्पादादि अकेले-अकेले नहीं रह सकते हैं इस कथन से खण्डित कर दिया गया समझना चाहिये, क्योंकि परस्पर में अनपेक्ष उन-उन उत्पादिकों का एक -एक रूप से अस्तित्व रूप होना निराकृत कर दिया गया है ।
उत्थानिका — और दूसरी बात यह कि
घट का इच्छुक घड़ा नाश से करता शोक सहेतुक है । मुकुट अर्थि तो मुकुटोत्पाद से हर्षित हुआ सहेतुक है ॥ स्वर्णार्थी इन उभय अवस्था में मध्यस्थ स्वभाव धरे ।
व्यय, उत्पाद, धौव्य के ये दृष्टांत सहेतुक कहे खरे ।। ५६ ।।
कारिकार्थ - घट, मौलि एवं सुवर्ण के इच्छुक ये तीन व्यक्ति नाश, उत्पाद एवं स्थिति सहेतुक ही शोक, प्रमोद एवं माध्यस्थ भाव को प्राप्त होते हैं । ॥५६॥
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1 अत्राह परः हे स्याद्वादिन् ! एकस्मिन् वस्तुनि उत्पादादीनां त्रयाणां प्रत्येकं सत्त्वाङ्गीकारे । कोर्थ: । उत्पादस्त्रयात्मकः । विनाशस्त्रयात्मकः । स्थितिस्त्रयात्मका । तत्रापि ते च त्रयः प्रत्येकं त्रयात्मकाः तत्रापि ते च त्रयः । प्रत्येकं त्रयात्मका एवमग्रेपि त्रयात्मकत्वादनवस्थादोषः संभवति । इत्युक्ते स्याद्वाद्याह अनपेक्षा खपुष्पवत् । इत्यनेनैव पदेन 3 एकस्य वस्तुन उत्पादव्ययीव्यत्वं दूरीकृतत्वात् । दि० प्र० । 2 वस्तुनः सकाशात्सर्वथा भिन्नत्वे । दि० प्र० ।
लौकिकदृष्टान्तेन समर्थयन्ति । ( ब्या० प्र० ) ।
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