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अष्टसहस्री
[ तृ०५० कारिका ५८
त्वसाधनात् । तत' एव ध्रौव्यप्रतीतेरस्खलत्वं सिद्धं, सर्वथा क्षणिकत्वनिराकरणात् । न चोत्पादादीनां कथंचिद्भिन्नलक्षणत्वं विरुद्धं, तदात्मनो वस्तुनो जात्यन्तरत्वेन' कथंचिद्भिन्नलक्षणत्वादन्यथा तदवस्तुत्वप्रसङ्गात् । उत्पादादयो हि परस्परमनपेक्षाः खपुष्पवन सन्त्येव । तथा हि । उत्पादः केवलो नास्ति स्थितिविगमरहितत्वाद्वियत्कुसुमवत् । तथा स्थितिविनाशौ प्रतिपत्तव्यौ । स्थितिः केवला नास्ति, विनाशोत्पादरहितत्वात् तद्वत् । विनाशः केवलो नास्ति, स्थित्युत्पत्तिरहितत्वात् तद्वदेव । इति योजनात् सामर्थ्यादुत्पादव्य
समाधान—ऐसा नहीं कह सकते । क्योंकि सर्वथा इन तीनों में तादात्म्य असिद्ध है । कथचित् लक्षण भेद पाया जाता है।
तथाहि । उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य कथंचित् भिन्न लक्षण वाले हैं क्योंकि अस्खलित रूप से भिन्न-भिन्न प्रतीति हो रही है। जैसे एक बिजौर में रूप, रसादि कथंचित् भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं।
सांख्य-सभी वस्तुयें नित्य रूप सिद्ध हैं, इसलिये उत्पाद विनाश की प्रतीति में अस्खलित रूप विशेषण देना असिद्ध है ।
जैन-ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि हमने वस्तु को कथंचित् क्षणिक रूप भी सिद्ध किया है। उसी हतु से ध्रौव्य प्रतीति भी अस्खलित रूप सिद्ध है। क्योंकि हमने सर्वथा क्षणिक मत का निराकरण कर दिया है और उत्पादादि में कथंचित् भिन्न लक्षणत्व विरुद्ध भी नहीं हैं। क्योंकि तदात्मक वस्तु जात्यंतर रूप से कथंचित् भिन्न लक्षण वाली है। अन्यथा वे उत्पादादि अवस्तु हो जायेंगे।
परस्पर में अनपेक्ष उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य आकाश पुष्प के समान हैं ही नहीं।
तथाहि । केवल उत्पाद नहीं है क्योंकि वह स्थिति और विनाश से रहित है, आकाश पुष्प के समान । उसी प्रकार से स्थिति और विनाश को भी समझना चाहिये।
1 सर्वस्य वस्तुनो नित्यत्वात् । दि० प्र०। 2 अत्राह परः हे स्याद्वादिन् एकस्मिन् वस्तुनि वर्तमाना उत्पादादयस्त्रयः कथञ्चिद्भिन्नलक्षणाः संभवंतीति विरुद्धमित्युक्ते स्याद्वाद्याह । एवं न कुतस्त्रिस्वभावस्य वस्तुनो जात्यन्त रत्वेनोत्पादादीनां त्रयाणां मिलितत्वेन पानकेनेव कथञ्चिभिन्न लक्षणत्वमस्ति यतः । अन्यथा सर्वदा भिन्न लक्षणत्वं भवति चेत्तदा तेषामुत्पादादीनां त्रयाणामवस्तुमायाति = अवस्तुत्वं कथमित्युक्ते स्याद्वादी अनुमानेनोत्तरं ददाति । उत्पादयस्त्रयः पक्षः परस्परमनपेक्षा न भवन्ति साध्यो धर्मोऽर्थ क्रियारहितत्वात् यदर्थक्रियारहितं तन्नास्ति । यथा खपुष्पमर्थक्रियारहिताश्चामी तस्मात्परस्परमनपेक्षा न भवन्तीति । दि० प्र० । 3 एकस्मादुत्पादयुक्तास्थितियुक्तात् व्यययुक्ताद्वस्तुनः सकाशात् त्रययुक्तं जात्यन्तरम् । ब्या० प्र० । 4 वस्तुनः सकाशात्सर्वथाभिन्नत्वे । ब्या० प्र०। 5 खपुष्पवत् (दि० प्र०)। 6 उत्पादादीनां निरपेक्षाणामसत्त्वप्रतिपादनलक्षणात् । ब्या० प्र० ।
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