SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ५८ कार्यकारणजन्मविनाशयोरेकहेतुकत्वनियमस्य सुप्रतीतत्वात्, तयोरन्यतरस्यैव सहेतुकत्वाहेतुकत्वनियमवचनस्य निरस्तत्वात् । [ योगोऽपि उत्पादविनाशी एकहेतुको न मन्यते तस्य निराकरणं ] ननूपादानघटविनाशस्य बलवत्पुरुषप्रेरितमुद्गराधभिघातादवयवक्रियोत्पत्ते'रवयवविभागात्संयोगविनाशादेव' प्रतीतेरुपादेयकपालोत्पादस्य तु स्वारम्भकावयवकर्मसंयोगविशेषादेरेव' संप्रत्ययात् तयोरेकस्माद्धेतोनियमासंभवादसिद्धमेव साधनमिति10 चेन्न, अस्य विनाशोत्पादकारणप्रक्रियोद्घोषणस्याप्रातीतिकत्वाबलवत्पुरुषप्रेरितमुद्गरादिव्यापाराआदि भिन्न हेतुक है। इसमें एक हेतु का नियम नहीं देखा जाता है। किन्तु उपादान के क्षय और उपादेय उत्पाद में एक हेतु का नियम देखा जाता है। इसलिये उपादान का क्षय ही उपादेय का उत्पाद है। ___ इस अनुमान में हमारा हेतु असिद्ध भी नहीं है । क्योंकि कार्य के जन्म और कारण के विनाश में नियम से एक हेतु प्रतीति में आ रहा है । किन्तु इन दोनों में से किसी एक को सहेतुक और दूसरे को अहेतुक मानने वालों का प्रथम ही खण्डन कर दिया गया है। अर्थात् कपालमाला का उत्पाद तो सहेतुक है किन्तु घट का विनाश निर्हेतुक है । ऐसा कहने वाले बौद्धों का पहले खण्डन किया गया है, कारण जो कपाल के उत्पाद में हेतु है वही घट के विनाश में हेतु है। कपाल का उत्पाद और घट का विनाश दोनों एक हेतु से एक समय में हुये हैं, भिन्न समय में नहीं। [ योग भी उत्पाद व्यय को एक हेतुक नहीं मानता है। उसका निराकरण । ] यौग-उपादान घट का विनाश तो बलवान् पुरुष के द्वारा प्रेरित मुद्गर आदि के अभिघात से हआ है वह अवयव क्रिया की उत्पत्ति से अवयवों के विभाग से है एवं संयोग के विनाश से ही हुआ है । क्योंकि घट के विनाश की इसी तरह प्रतीति हो रहो है। किन्तु उपादेय कपाल का उत्पाद तो अपने आरम्भक अवयव कर्म-परमाणु आदि में होने वाली क्रिया के संयोग विशेष से ही प्रतीति में आता है। अतएव इन दोनों में एक हेतु का नियम करना असंभव ही है अतः आपका हेतु असिद्ध है। जैन-ऐसा नहीं है। क्योंकि उस प्रकार विनाशोत्पाद की कारणभूत प्रक्रिया का उद्घोषण प्रतीति में नहीं आता है। प्रत्युत बलवान पुरुष के द्वारा प्रेरित मुद्गरादि व्यापार से ही घट का 1 विरूपकार्यारम्भायेत्यत्र । ब्या० प्र०। 2 यसः । ब्या० प्र० । 3 कपालमालारूपकार्य प्रति । ब्या०प्र०। 4 कपालेष । ब्या० प्र०। 5 मुद्गरादिघातादवयवक्रियास्तस्याऽवयवक्रियास्तस्मात्संयोगविनाशस्तस्मात् घटविनाशस्योत्पत्तेः । दि० प्र०। 6 प्राप्तिविका । हि अप्राप्तिविभागः । ब्या० प्र०। 7 अप्राप्तिपूर्विका प्राप्तिसंयोगः । ब्या० प्र०। 8 कार्यभतः । ब्या० प्र०। 9 क्रिया । ब्या० प्र०। 10 हेतोनियमात । दि० प्र०। 11 स्याद्वादी वदति एवं न कस्मात् एतद्विनाशोत्पादकारणसामग्रीप्रतिपादनं योगस्य लोके प्रतीतिरहितं यतः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy