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________________ २३४ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ५६ निष्टेर्जन्मात्मनि' स्थितिविनाशानुपगमाद्विनाशे स्थितिजन्मानवकाशात् प्रत्येकं तेषां त्रयात्मकत्वानुपगमात् । न चैवमेकान्ताभ्युपगमादनेकान्ताभावः, सम्यगेकान्तस्यानेकान्तेन विरोधाभावात्, नयापरणादेकान्तस्य प्रमाणार्पणादनेकान्तस्यैवोपदेशात् तथैव दृष्टेष्टाभ्यामविरुद्धस्य तस्य व्यवस्थितेः। केन पुनरात्मनाऽनुत्पादविनाशात्मकत्वास्थितिमात्रं ? केन चात्मना' विनाशोत्पादावेव ? कथं च तत् त्रयात्मकमेव' वस्तु सिद्धम् ? इति भगवता' पर्यनुयुक्ता इवाचार्याः प्राहुः; समाधान-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उत्पादादि में परस्पर में असंकर है और उत्पादादिमान वस्तु में तो संकर होना वस्तु का लक्षण ही है वह दूषण रूप नहीं है। इसी कथन से व्यतिकर दोष का प्रसंग भी नष्ट हो गया। जिस प्रकार से अद्वैतज्ञान में वेद्य, वेदकाकार परस्पर में एक-दूसरे रूप नहीं होते हैं तथैव स्थिति, उत्पत्ति आदि भी परस्पर में एक-दूसरे रूप नहीं होते हैं। एवं संकर, व्यतिकर दोष के न होने से अनवस्था दोष भी दूर से ही भाग जाता है। स्थिति के स्वरूप में उत्पाद, व्यय अनिष्ट हैं। उत्पाद के स्वरूप में स्थिति और विनाश स्वीकार नहीं किये गये हैं । एवं विनाश में स्थिति और उत्पाद को अवकाश नहीं मिलता है। क्योंकि उन तीनों में प्रत्येक में ही त्रयात्मकपना स्वीकार नहीं किया गया है। अर्थात् स्थिति में उत्पाद आदि तीनों नहीं पाये जाते हैं, तथैव उत्पाद, विनाश में भी तीनों ही अवस्थायें नहीं पायी जाती हैं। इस प्रकार से एकांत को स्वीकार करने से अनेकांत का अभाव भी नहीं है। क्योंकि सम्यक एकांत का अनेकांत के साथ विरोध नहीं है । क्योंकि नय की अपेक्षा से एकांत का तथैव प्रमाण की अपेक्षा से अनेकांत का ही उपदेश दिया गया है, अर्थात् प्रमाण की अर्पणा से जो अनेकांत है वही नय की अर्पणा से एकांत रूप हो जाता है। तथैव-नय प्रमाण योजना के प्रकार से ही प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाण से अविरुद्ध परस्पर सापेक्ष सम्यगेकांत रूप नय की व्यवस्था सुघटित है। उत्थानिका-पुनः किस स्वरूप से उत्पाद विनाशात्मक न होने से वस्तु स्थिति मात्र है एवं किस स्वरूप से विनाश और उत्पाद ही है ? और किस प्रकार से वह त्रयात्मक रूप ही वस्तु सिद्ध है ? इस प्रकार से भगवान के द्वारा प्रश्न करने पर ही मानों श्रीसमंतभद्रस्वामी उत्तर देते हैं-- भगवन् ! तव मत में द्रव्याथिक नय से वस्तु नहीं उपजे। नहिं विनशे भी कोई वस्तु क्योंकि अन्वय प्रगट रहे । वही वस्तु पर्याय दृष्टि से विनशे उपजे क्षण-क्षण में। एक वस्तु में युगपत् व्यय, उत्पाद ध्रौव्य होना 'सत' है ॥५७।। 1 उत्पादात्मनि । ब्या० प्र०। 2 सत्यकान्तस्य धर्मान्तरापेक्षस्य। ब्या० प्र०। 3 श्रीवर्धमानेन । दि० प्र० । 4 कथञ्च त्रयात्मकमेकवस्तु । इति पा० । दि० प्र०। 5 सत्तास्वरूपेण । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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