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________________ २३२ ] अष्टसहस्री [ तृ० ५० कारिका ५६ क्वचिदेकवस्तुत्वमस्तु, तदविशेषात् । क्वचिदेकत्र 'रूपरसादीनामप्यशक्यविवेचनानामेकवस्तुत्वापत्तिर्नानिष्टकारिणी, तेषां नानावस्तुत्वानिष्टः । न चात्माकाशादीनां' देशाभेदेप्यशक्यविवेचनत्वं, तेषां परैकद्रव्यतादात्म्याभावात् । सत्तकद्रव्यतादात्म्ये पुनरेकवस्तुत्वमिष्टमेव स्याद्वादिनाम् “एक द्रव्यमनन्तपर्यायम्” इति वचनात् । ततो न वैयधिकरण्यम् । 'एतेनोभयदोषप्रसङ्गोपास्तो, वेद्याद्याकारात्मबोधवदुत्पादाद्यात्मवस्तुनो 'जात्यन्तरत्वात्, 1°अचौरपारदारिकवच्चौरपारदारिकाभ्याम् । न चैवं विरोधप्रसङ्गः, "तस्यानुपलम्भसाधनादेकत्रैकदा 12शीतोष्णस्पर्शवत्, स्थित्यादिषु चोपलम्भसद्भावादेकवस्तुन्येकदानुपलम्भासिद्धेः विजौरे आदि में रूप, रस आदि का भी अशक्य विवेचन होने से एक वस्तु का प्रसंग आ जाना कोई अनिष्टकारी नहीं है। क्योंकि उन रूप-रसादिकों में अनेक वस्तुपना इष्ट नहीं है। तथैव आत्मा, आकाशादिकों में देश का अभेद होने से अशक्य विवेचन है ऐसा भी कहना ठीक नहीं है । क्योंकि उनमें अन्य लोगों ने भी एक द्रव्य तादात्म्य नहीं माना है। सत्ता रूप एक द्रव्य त्म्य को स्वीकार करने पर तो सभी वस्तु में (आत्मा, आकाशादिकों में) एक वस्तूत्व एकत्व मानना हम स्याद्वादियों को इष्ट ही है । सत्ता लक्षण एक द्रव्य अन्नत पर्यायात्मक है अर्थात् सत्ता लक्षण एक द्रव्य है जो कि आत्मा, आकाशादिक रूप अनेक प्रर्याय वाला है। ऐसा आगम वाक्य है। इस सत्ता की अपेक्षा नानात्व के न होने से वैयधिकरण्य दोष भी नहीं आता है। और इसी कथन से उभय पक्ष में-एकत्व पक्ष में, तथा अनेकत्व पक्ष में जो सौगत एवं अद्वैतवादी ने दोष दिये हैं उनका भी खण्डन कर दिया गया समझना चाहिये । क्योंकि वेद्यवेदकात्मक ज्ञान के समान उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक वस्तु जात्यंतर रूप मानी जाती है। जैसे चौर से अचौर एवं परस्त्री लम्पट से अपरस्त्री लम्पट भिन्न है । इस प्रकार से एक वस्तु में स्थिति, उत्पत्ति, व्यय का विरोध भी 1 अशक्यविवेचनत्वाविशेषात् । दि० प्र०। 2 आशङ्कय । दि० प्र०। 3 पराह आत्माकाशादीनां यस्यां द्रव्याणामेकक्षेत्रापेक्षयाऽभेदो अशक्यविवेचनत्वमस्तु इत्युक्ते स्याद्वादी वदति एवं न। कस्मात्तेषां मध्येऽन्यतमस्य परस्मिन् एकस्मिन् द्रव्ये ऐक्याभावात् । तत्तस्मात् एकद्रव्यं न स्याद्वादिनां मते तादात्म्ये सति पुन एकवस्तुत्वमभिमतमेकं द्रव्यमनन्तपर्यायमिति सिद्धान्तात् । दि०प्र०। 4 भिन्नं यदेकं द्रव्यमात्मादिभ्यः । ब्या० प्र०। 5 रसादीनां मातुलिङ्गलक्षणपरद्रव्येण तादात्म्याद्यथा अशक्यविवेचनत्वं न तथात्र । दि० प्र० । 6 अपि । ब्या० प्र०। 7 एक वस्तुनि स्थित्यादीनां स्वभावभेदेपि अशक्यविवेचनत्वात नानात्वदोषाभावः । कोर्थः एक वस्तुत्वमेव । यत एवं तत एकस्मिन् वस्तुनि भिन्नाधिकरणत्वमपिन संभवति । एतेन वैयधिकरण्यदोषनिराकरणेन वस्तुनि सदसदात्मकादिलक्षणे सति सत्त्वे असत्त्वं न । असत्त्वे सत्त्व नेत्युभयदोषप्रसङ्गोपि निराकृतः । दि० प्र०। 8 सर्वथा नित्यानित्यपक्ष दोषः क्रियाकारकत्वाभावलक्षण । दि० प्र०। 9 जात्यन्तरं सिद्धं यथा । ब्या० प्र० । 10 स्थित्युत्पादविनाशेभ्यो धर्मेभ्यः स्थित्यादित्रयस्वरूपं धर्मः ? भिन्नं यथा संविद्वेद्यवेदकारधर्मेभ्यः । संविदादित्रयात्मकं ज्ञानं भिन्न-इदानीं लौकिकदृष्टान्तमाह । यथा चौरादचौरो भिन्नः पारदारिकादपारदारिकः । दि०प्र० । 11 अनुपलम्भ एव साधनं यस्येति वसः । ब्या० प्र०। 12 स्थित्यादेरपि एकवस्तुन्यनुपलम्भो भविष्यति ततश्च विशेषोनूपलम्भप्रकारेण भवेदित्याशङ्कायामाह । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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