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अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग
[ २२६ विनाशौ सर्वथा स्थितिरहितौ सकृदप्यनिश्चिन्वन्नेव' स्थित्यनुभवनिर्णयं विभ्रान्तं कल्पयतीति कथं न निरात्मक एव ?
[ नित्यकांतपक्षेऽपि प्रत्यभिज्ञानं न संभवति । तत्रतत्स्यात् स्वभावाविनिर्भागेपि न संकलनं दर्शनक्षणान्तरवत् । न ह्येकस्मिन्दर्शनविषये क्षणेऽविनिर्भागेपि' प्रत्यभिज्ञानमस्तीति । सत्यमेकान्ते एवायं दोषः, सर्वथा नित्ये पौर्वापर्यायोगात् प्रत्यभिज्ञानासंभवात् । ततः क्षणिक कालभेदात् । न चायमसिद्धः,
"उस अनुगताकार अनुभव ज्ञान में विभ्रम की कल्पना करने पर उत्पाद, विनाश में विश्वास नहीं हो सकेगा, क्योंकि स्थिति के बिना नाशोत्पाद के अनुभव का निर्णय अनुपलब्ध है, अर्थात् ढूंढते हुए उस रूप से अनुभव नहीं हो रहा है, जैसा कि आप बौद्धों ने स्वलक्षण को स्वीकार किया है।"
आप बौद्ध प्रतिक्षण ही सर्वथा स्थिति से रहित उत्पाद और विनाश को एक बार भी निश्चित न करते हुए ही "स्थिति के अनुभव का निर्णय विभ्रांत है" ऐसा कहते हैं । सो आप निरात्मक चैतन्य शून्य ही क्यों नहीं हैं । अर्थात् अचेतन ही हैं ।
[सर्वथा नित्यकांत में भी प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता है ।] ''इसी प्रकार से नित्यकांत पक्ष में भी दूषण दिखाते हैं। स्वभाव से अविनिर्भाग-निरंश एक रूप ऐसे नित्यकांत पक्ष में भी संकलन ज्ञान नहीं है। जैसे कि दर्शन क्षण से भिन्न में संकलन ज्ञान नहीं है।" प्रमाता के क्षणों से अन्य विषय लक्षण क्षण, दर्शन, क्षणांतर कहलाता है। जैसे उसमें प्रत्यभिज्ञान नहीं है । वैसे ही सर्वथा नित्य पक्ष में भी प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता है ।
निर्विकल्प प्रत्यक्ष के विषयभूत के क्षण में निरंशपना होने पर भी प्रत्यभिज्ञान है, ऐसा आप नहीं कह सकते। इसलिये एकांत में ही यह दोष सत्य है ।" क्योंकि सर्वथा नित्य पदार्थ में पूर्वापर
1 निविकल्पकप्रत्यक्षाविषयत्वात् । ब्या० प्र० । 2 पूर्वोक्तमते एतद्वक्ष्यमाणं भवेत्किमित्युक्ते स्वभावस्य निरंशे सति प्रत्यभिज्ञानं न क्षणान्तरवत् । यथा सर्वथानित्ये। न केवलं क्षणिके। दि० प्र०। 3 इदानीमक्षणिकैकान्ते परामर्शप्रत्ययानुपपत्ति दर्शयति । ब्या० प्र०। 4 निरंशे । दि० प्र०। 5 केवलदर्शनगोचरे निरंशे स्वलक्षणे प्रत्यभिज्ञानं नास्ति इत्येकान्ते सर्वथाक्षणिके अयं प्रत्यभिज्ञानसम्भवलक्षणो दोषः सम्भवतीति सम्बन्धः । दि० प्र०। 6 प्रत्यभिज्ञानाभावलक्षणः । दि० प्र०। 7 यथा सर्वथा क्षणिके तथा सर्वथा नित्ये प्रत्यभिज्ञानं न सम्भवति । कुतः पूर्वापरविभागाघटनात् =यत एवं तत: जीवादि वस्तु कथञ्चित् क्षणिकं भवतीति साध्यो धर्मः कालभेदादिति हेतुरसिद्धो न -आह परो दर्शनकालप्रत्यभिज्ञानकालयोर्भेदो नास्ति इत्युक्ते स्याद्वाद्याह । भेदाभावे सति तदुभयाभाव: प्रसजति प्रत्यभिज्ञानकालादर्शनकालस्य भेदे सति तस्य दर्शनस्य निर्णयो नोत्पद्यते दर्शनकालात्प्रत्यभिज्ञानकालस्य भेदे सति पूर्वापरपर्यायव्याप्येकप्रत्यभिज्ञानं न संभवति =यत एवं ततः स्याद्वादिनां मते सविकल्पकदर्शनं कालावग्रहादिज्ञानचतुष्कनिश्चयनिमित्तं भवति प्रत्यभिज्ञानकालात भिन्न एव प्रत्यभिज्ञानकालश्च दर्शनकालाद्धिब एव तथावग्रहादिनिश्चय हेतूदर्शनस्मरणोभयसंकलनकारणमिति ज्ञेयम् । दि० प्र०। 8 ननु सर्वथा । ब्या० प्र०।
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