SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ५६ दानोपादेयलक्षणः सन्नप्यतिशयः पृथक्त्वं न निराकरोति ! पृथक्त्वे' च पूर्वापरक्षणयोः प्रत्यवमर्शो न स्यात् । यदेव ' हि पृथक्त्वं तदेवान्यत्रापि प्रत्यवमर्शाभावनिबन्धनं, सर्वत्र तदविशेषात् । यदि पुनरेकसंततिपतितेषु' प्रत्यवमर्शो न पुनर्नानासंततिपतितेषु पृथक्त्वा - विशेषेपि वासनाविशेषसद्भावादिति मतं तदा सैवैकसंततिः क्वचिदेव कुतः सिद्धा । प्रत्यभिज्ञानादिति चेत्तर्हि एकसंतत्या प्रत्यभिज्ञानं प्रत्यभिज्ञानबलाच्चैकसंततिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयणमेतत् । न च पक्षान्तरे समानं, स्थितेरनुभवनात् । न ह्येकद्रव्य सिद्धः । प्रत्यभिज्ञानं प्रत्यभिज्ञानाच्चैकद्रव्य सिद्धिः स्याद्वादिभिरिष्यते येन तत्पक्षेपि परस्पराश्रयणं, 'भेदज्ञानाद् भेदसिद्धिवदभेदज्ञानात् स्थितेरनुभवाभ्युपगमात् । ' तद्विभ्रमकल्पनायामुत्पादविनाशयोरनाश्वासः, तथानुभव निर्णयानुपलब्धेर्यथा' स्वलक्षणं परिगीयते। सोयं प्रतिक्षणमुत्पाद बौद्ध - एक संतति-पतित एक संतानवर्ती पूर्वोत्तर क्षणों में प्रत्यवमर्श है, किन्तु नाना संतानवर्ती पिता, पुत्रादि लक्षण पूर्वोत्तर क्षणों में प्रत्यवमर्श नहीं है । यद्यपि दोनों में भी भेद समान है फिर भी वासना विशेष का सद्भाव होने से ही ऐसा होता है । जैन — तब तो वह एक ही संतति कहीं स्वकीय-क्षणों में ही कैसे सिद्ध होगी, पिता पुत्रादि में वह एक संतति क्यों नहीं सिद्ध होगी ? बौद्ध - प्रत्यभिज्ञान से वह एक संतति स्वकीय क्षणों में ही सिद्ध होती है अन्यत्र नहीं । जैन - तब तो एक संतति के सिद्ध होने से प्रत्यभिज्ञान सिद्ध होगा और प्रत्यभिज्ञान बल से एक संतति सिद्ध होगी । इस तरह इतरेतराश्रय दोष स्पष्ट ही है । एवं पक्षांतर - स्याद्वाद पक्ष में यह इतरेतराश्रय दोष समान है । आप ऐसा भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि स्थिति का अनुभव आ रहा । एक द्रव्य की सिद्धि से प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि हो, तथा प्रत्यभिज्ञान से एक द्रव्य की सिद्धि हो ऐसा हम स्याद्वादियों ने नहीं माना है। जिससे की आप हम स्याद्वादियों के पक्ष यह इतरेतराश्रय दोष आरोपित कर सकें । भेदज्ञान से भेद की सिद्धि के समान ही स्याद्वादियों ने अभेद ज्ञान से स्थिति का अनुभव भी स्वीकार किया ही है । अर्थात् मृत्पिंड, स्थास आदिकों में जैसे— प्रतिभासित होता है उसी प्रकार मिट्टी रूप से अभेद भी प्रतिभासित हो ही रहा है । 1 भेदम् । ब्या० प्र० । 2 अस्त्वेतदित्याह । ब्या० प्र० । 3 पूर्वोत्तरक्षणयोः । ब्या० प्र० । 4 अत्राह सौगत: है स्याद्वादित् यदि देवदत्तसन्तानः तेषु पूर्वोत्तरक्षणेषु प्रत्यभिज्ञानं घटते वासनाविशेषात् । पृथक्त्वेनाविशेषेपि न पुनः देवदत्तयज्ञदत्तसन्तानपतितेषु = स्या- इतितवाभिप्रायः तदा सा एकसन्ततिरेवक्वचिद्वस्तुनि कुतः सिद्धा = प्रत्यभिज्ञानात् । तर्हि एकसन्ततिप्रत्यभिज्ञानयोरन्योन्याश्रयः सिद्धः । दि० प्र० । 5 पूर्वापरक्षणयोः । दि० प्र० । 6 उत्पादविनाशयोस्तुस्थितिरुपतया निर्णयाभावात् । स्थितिविभ्रमकल्पना न युक्तेत्यभिप्रायः । दि० प्र० । 7 नाशोत्पादप्रकारेण | दि० प्र० । 8 मूलतात्पर्यं सूरयः प्राहुः । ब्या० प्र० । 9 सोगतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy