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________________ अनेकांत की सिद्धि तृतीय भाग [ २१६ व्याघाताच्च । सहकारिक्रमाक्रमापेक्षया तत्रं क्रमयोगपद्यकल्पनापि न साधीयसी स्वयं तदपेक्षा, क्रमेतरस्वभावत्वाभावे तदनुपपत्तेः । तत्कार्याणां तदपेक्षा, न पुननित्यस्य क्षशिकस्य वेत्यपि न श्रेयान्, तेषां तदकार्थत्वप्रसङ्गात् । तत्सहितेभ्य: सहकारिभ्यः कार्याणामुत्पत्तेरन्यथानुत्पत्तेस्तत्कार्यत्वनिर्णय इति चेत्तहि येन स्वभावेनैकेन सहकारिणा सहभावस्तेनैव' सर्वसहकारिणा यदि तस्य स्यात्तदैककार्यकरणे सर्वकार्यकरणात्क्रमकार्यानुपपत्तिः, सहकार्यन्तराभावेपि च तत्सहभावात्सकृदेव सकलकार्योत्पत्तिः प्रसज्येत । स्वभावान्तरैः सह कायान्तर से ही होती है अर्थात् प्रत्येक वस्तु अपने पूर्व आकार का त्याग करके उत्तर आकार को ग्रहण करती है और इन दोनों ही अवस्थाओं में अन्वय के पाये जाने से ही उसमें क्रम से युगपत अर्थक्रिया घटित होती है वैसे ही वे जीवादि वस्तु अनेक शक्त्यात्मक भी हैं तभी तो उसमें किसी स्वभाव का त्याग और अन्य किसी स्वभाव का उत्पाद होता है फिर भी अन्वय रूप एक वस्तु अनेक शक्त्यात्मक होने से एक ही रहती है और सर्वथा नित्य में पूर्वाकार त्याग और उत्तराकारोपादान होना आदि एवं सर्वथा क्षणिक में अनेकशक्यात्मक अन्वय-रूप एक द्रव्य का अभाव है । तथाहि सर्वथा कूटस्थ पदार्थ में पूर्व स्वभाव का त्याग, उत्तर स्वभाव का उपादान संभव नहीं है। अथवा सर्वथा क्षणिक में अन्वय रूप नहीं है । कि जिससे सर्वथा नित्य या क्षणिक में कालकृत अथवा देशकृत क्रम हो सके अर्थात नहीं हो सकता है एवं युगपत् अनेक स्वभाव भी नहीं है जिससे योग पद्य सिद्ध हो सके अर्थात् युगपत् भो नहीं हो सकता है । और यदि आप अनेक स्वभाव मान लेंगे तो कूटस्थ भाव का विरोध आ जायेगा और निरन्वय क्षणिकत्व भी नष्ट हो जायेगा। ___अर्थात् जिस प्रकार से नित्य में अनेक स्वभाव सिद्ध हो जाने से कूटस्थपना नहीं घटेगा, उसी प्रकार से क्षणिक में भी क्रम से अनेक स्वभाव हो जाने से क्षणिकत्व ही नहीं टिकेगा। सहकारी कारणों से क्रम, युगपत् की अपेक्षा से वहाँ नित्य और क्षणिक में क्रम योगपद्य की कल्पना करना भी स्वयं तदपेक्षा सिद्ध करने योग्य नहीं है। क्योंकि क्रम और युगपत् रूप स्वभाव का अभाव होने पर वह क्रम युगपत् सम्भव नहीं है । यदि आप कहें कि उन नित्य और क्षणिक पक्ष में होने वाले कार्यों को ही उनकी अपेक्षा है किन्तु नित्य अथवा क्षणिक को उसकी अपेक्षा नहीं है, यह कथन भी श्रेयस्कर नहीं है अन्यथा उनको अकार्यत्व का प्रसंग आ जायेगा। शंका-उस नित्य अथवा क्षणिक से सहित ही सहकारी कारणों से कार्यों की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं होती है अतएव ये उसके कार्य हैं, ऐसा निर्णय हो जाता है । 1 पुनराह पर: अहो नित्यक्षणिककार्याणां सहकारिक्रमापेक्षास्ति न पुनः नित्यस्य क्षणिकस्य वा। इत्युक्ते स्याद्वाद्याह । इदमपि न कुतस्तेषां कार्याणां तयोन्नित्यक्षणिकयोरकार्यत्वमायाति । दि० प्र०। 2 परनित्यः क्षणिक सहितेभ्यः सहकारिभ्यः सकाशात्कार्या ण्यत्पद्यतेऽन्यथा संभवात् । नित्यक्षणिकत्वयोः कार्यत्वनिश्चय इति चेत् स्याद्वाद्याह । तहि नित्यस्य क्षणिकस्य च एकस्वभावः अनेके स्वभावा एकः सहकारी अनेकसहकारिणो वेति विकल्पः । दि० प्र०। 3 तेनैव वा स्वभावान्तरर्वा इति विकल्पद्वयम् । ब्या० प्र०। 4 द्वितीयविकल्पोयम् । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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