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________________ २१४ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ५५ विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥५५॥ नित्यत्वेतरैकान्तद्वयमप्ययुक्तमङ्गीकर्तु, विरोधाधुगपज्जीवितमरणवत् । तादात्म्ये हि नित्यत्वानित्यत्वयोनित्यत्वमेव स्यादनित्यत्वमेव वा। तथा च नोभ्यैकात्म्यं', 'विप्रति- . षेधात् । नित्यत्वानित्यत्वाभ्यामत एवानभिलाप्यमित्ययुक्तं, तोकान्तेऽनभिला'प्योक्तेरनुपपत्तेः, सर्वथानभिलाप्यं तत्त्वमित्यभिलपत एव वचनविरोधात् सदा मौनव्रतिकोहमित्यादिवत ।। उत्थानिका-पुनरपि आचार्यवर्य उभयकांत एवं अवक्तव्य में दूषण दिखाते हैं नित्य अनित्य उभय धर्मों का मेल सदैव विरोधी है। स्याद्वाद नय के विद्वैषी चूंकि सदा निरपेक्ष कहें ।। इन दोनों का "अवक्तव्य" भी यदि एकांत विधि से है। तब तो "अवकव्य" यह कहना सचमुच स्ववचन बाधित है ।।५५।। कारिकार्थ-स्याद्वादनीति से द्वेष रखने वालों के यहां नित्यत्व, अनित्यत्व रूप उभयकांत मानना भी सिद्ध नहीं है क्योंकि निरपेक्ष उभयकांत में परस्पर में विरोध है तथा यदि तत्त्व को सर्वथा अवाच्य रूप ही स्वीकार करें तो भी 'तत्त्व अवाच्य है" यह कथन भी युक्त नहीं हो सकता है ।५। नित्यत्व और अनित्यत्व इन उभय रूप एकांत को भी स्वीकार करना युक्त नहीं है। क्योंकि विरोध आता है। जैसे कि युगपत् जीवित और मरण में विरोध है। यदि नित्यत्व और अनित्यत्व में तादात्म्य स्वीकार करोगे तब तो या तो नित्य ही रहेगा या अनित्य ही रहेगा और इस प्रकार से एक के ही रहने पर युगपत् उभयकांत नहीं रह सकता है क्योंकि विरोध आता है। यदि आप कहें कि इसीलिये नित्य और अनित्य के द्वारा विरोध आने से ही हम तत्व को अवाच्य कहते हैं यह कहना भी अयुक्त ही है क्योंकि आपके एकांत में "अवाच्य है।" यह उक्ति भी नहीं बन सकती है। सर्वथा “तत्त्व अवाच्य है।" इस प्रकार कहते हुये आप बौद्ध के ही स्ववचन में विरोध आ जाता है । जैसे कि "सदा मैं मौनव्रती हूँ" । इत्यादि वचन स्ववचन बाधित ही हैं। 1 नित्यानित्ययोः । दि० प्र० । 2 सांख्यसौगतादीनाञ्च । दि० प्र०। 3 नित्यानित्यम् । दि० प्र० । 4 विरोधात । दि० प्र०। 5 स्याद्वादन्यायविद्भिः उभयकात्म्यकथने नित्यत्वमेव वा भवति एवमेकस्मिन्नेव सत्यूभयकात्म्यवचनं विरुद्धयत एव । दि० प्र० । 6 यसः । ब्या० प्र० । आदि शब्देन मम माता वन्ध्या इत्यादिकं ग्राह्य । तदुक्तम् । यावज्जीवमहं मौनी ब्रह्मचारी तु मत्यिता । मम माता भवेद् वन्दया स्मराभोनुपमो भवानिति । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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