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________________ विसदृकार्योत्पादसहेंतुवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ २०५ योगादकिंचित्करः स्यात्, सर्वथा भावं' भावीकुर्वतो व्यापारवैफल्यात् । तदतत्करणादिविकल्पसंहतिरुभयत्र सदृशी। नाशोत्पादौ घटा भिन्नौ अभिन्नी वेति विचार्यते । यथैव हि विनाशहेतोः कुटस्य तदभिन्नविनाशकरणे' 'तत्करणादकिंचित्करत्वं, तद्भिन्नविनाशकरणे च तदुपलम्भप्रसक्तिः । तथोत्पादहेतो वादभिन्नोत्पादकरणेप्यकि जैन - यदि ऐसी बात है तब तो मुद्गरादि कारण से कपाल उत्पाद रूप व्यर्थ भी किंचित् नहीं होता है किन्तु भवत्येव केवलं' स्वयं ही वह कपाल उत्पन्न हो जाता है। ऐसा कथन भी आप क्यों नहीं मान लेते हैं, क्योंकि तब ऐसा मान लेना भी उसी के समान ही है । पुनः विनाश के समान उत्पाद को भी निर्हेतुक मानने का प्रसंग आ जायेगा। इसलिये यह विनाश हेतु भाव को अभाव रूप करता है। इसलिये अकिंचित्कर नहीं है । यदि वा कार्योत्पत्ति हेतु अभाव को भाव रूप न करें तब तो भाव को ही करता है और इस प्रकार से किये हुये को करने का अभाव होने से वह हेतु अकिंचित्कर हो जावेगा। क्योंकि सर्वथा भाव को भावरूप करने में व्यापार को मानना व्यर्थ है । अर्थात् यदि कार्योत्पत्ति हेतु पर्याय रूप से अभाव (अविद्यमान) को भावरूप न करें तब तो भाव (विद्यमान) को ही करता है। इस प्रकार से तो न किये हुये को करने का अभाव होने से वह हेतु अकिंचित्कर ही हो जायेगा । क्योंकि द्रव्य रूप के समान यदि पर्याय रूप से भी वह सद्भाव रूप है तब तो विद्यमान का उत्पाद करने में उस हेतु का व्यापार निष्फल ही रहा । उभयत्र-नाश और उत्पाद में भिन्न या अभिन्न रूप से किये जाने आदि रूपविकल्प समुदाय सदश ही हैं। अर्थात् इसलिये हे बौद्ध । जिस प्रकार से तुम्हारे विनाश पक्ष में विनाश घट से भिन्न किया जाता है या अभिन्न ? आदि तथैव उत्पाद पक्ष में भी उत्पाद घटादि से भिन्न किया जाता है या अभिन्न ? इत्यादि रूप से नाश और उत्पाद दोनों में ही ये तद् अतद् रूप से करने आदि के विकल्प समूह समान ही है। [ विनाश और उत्पाद घट से भिन्न हैं या अभिन्न ? इस पर विचार किया जाता है। ] जिस प्रकार से विनाश हेतु घट के विनाश को अपने से अभिन्न करता है, तब तो उसी को 1 विद्यमानम् । ब्या० प्र०। 2 उत्पादकारणवैफल्यं किमिति प्रतिपाद्यते यावता पूर्व विद्यमानस्य कपाललक्षणस्य भावस्य मुद्गरादिकारणेन निःपाद्यत्वं विद्यत एवेत्याशङ्कयाह । ब्या• प्र०। 3 घटस्य विनाशो घटादभित्रोभिन्नो वा इति विकल्पः । अभिन्नश्चेत् । तदा घटात् । अभिन्नविनाशकरणे घटस्य विनाशकारणस्य अकिञ्चित्करत्वमायातं । कस्माद्विनाशाभिन्नरूपकरणात्-भिन्नश्चेत् घटादिन्नरूपविनाशकरणे विनाश एव कृतः तस्य घटस्योपलब्धिः प्रसजति । दि० प्र०। 4 तत्कारणादिति पठान्तरम् । 5 तथोत्पादो घटादेर्भावात भभिन्नो भिन्नो वेति विकल्पः भावादुत्पाद: अभिन्नश्चेत्तदा घटादेरभिन्नोत्पादकरणे उत्पादहेतोरकिञ्चित्करं वा स्यात् । कूतः विद्यमानस्याकरणाघटनात् सर्वथाप्यसतो भावादुत्पादोऽभिन्नश्चेत्तदाभावादभिन्नस्योत्पादस्यकरणेन कि तत्कृतं स्यात् यथा सर्वथाप्यसतः खपुष्पस्य तस्मादभिन्नस्य सौरभ्यकरणं न घटते। दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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