________________
विसदृशकार्योत्पादसहेतुवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ २०३ हेतुर्न तु कपालोत्पादस्य स्यात् ? 'कार्यरूपादिस्तबकस्यैकसामग्र्यधीनस्य 'कारणरूपादिस्तबकवत् । यतश्चैवं तस्मात्कार्यकारणयोरुत्पादविनाशौ न सहेतुकाहेतुको सहभावाद्रसादिवत् । न हि कारणरसादिकलापः कार्यस्य रसस्यैव हेतुर्न पुना रूपादेरिति प्रतीतिरस्ति, यतः साध्यशून्यो दृष्टान्तः स्यात् । नाप्यसहभावो रसादीनां, येन साधनविकलः । 'पुरुषधिषणाभ्यामनेकान्त इति चेन्न, सौगतानां पुरुषासिद्धेः । स्याद्वादिनां तु तस्यापि सकेतुकत्वात् पर्यायार्थतो धिषणावत्, द्रव्यार्थतोऽहेतुकत्वाच्च धिषणायाः पुरुषवन्न ताभ्यां हेतोर्व्यभिचारिता,
भावार्थ-'यह वही स्त्री है" यह प्रत्यभिज्ञान इच्छा के उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है, इसलिये संज्ञा–प्रत्यभिज्ञान और छंद-इच्छा ये दोनों क्रम से उत्पन्न होते हैं। एवं "वत्" प्रत्यय से यह अर्थ समझना कि संज्ञा छंदादि तथा मति स्मृत्यादि ये क्रमभाषी हैं और नाशोत्पाद रूप हैं इनमें भेद के न होने पर भी जैसे ये एक सहकारी कारण पूर्वक हैं। उसी प्रकार से घट के नाश और कपालमाला के उत्पाद रूप समकालवर्ती नाशोत्पाद में भी एक ही सहकारी कारण मुद्गरादि है। जिस प्रकार से कार्य रूप, रूपरसादि में कारण रूपरसादि एक के हेतु हों और दूसरे के न हों ऐसा नहीं है इसी प्रकार से प्रकृत, नाश, उत्पाद में भी नहीं है ।
इसलिये कार्य-कारण के उत्पाद और विनाश सहेतुक नहीं हैं क्योंकि वे रसादि के समान सहभावी हैं । अर्थात् कपालमालादि का उत्पाद मुद्गरादि जन्य सहेतुक हैं। और कारण रूप घट का विनाश अहेतुक हो मुद्गरादि जन्य न होवें ऐसा नहीं है। बौद्ध मत में पूर्व रसक्षण कारण हैं और उत्तर क्षण कार्य है इस प्रकार से कारण रसादि कपाल कार्य रस का हा हेतु हो, किन्तु रूपादि का हेतु न हो ऐसा अनुभव नहीं होता है। कि जिससे हमारा दृष्टान्त साध्यशून्य हो सके तथैव रसादिकों में सहभाव न हो ऐसा भी नहीं है कि जिससे हमारा दृष्टांत साधन विकल हो सके अर्थात् हमारा 'रसादिवत्' यह दृष्टांत साध्य साधन विकल नहीं है ।
बौद्ध-पुरुष और बुद्धि के साथ अनेकांत दोष आ जायेगा। जैन-नहीं । क्योकि आप बौद्धों के यहाँ तो पुरुष की सिद्धि ही नहीं हो सकती है और
1 कदम्बस्य । ब्या० प्र-। 2 यथा एकस्मिन्मातलिङ्गादी फले रूपकारणमेककारणाय तस्य कार्यरूपस्योत्पादकं भवति रसस्य च । रसकारणमेककारणाय तस्य कार्य रसस्योत्पादकं भवति रूपस्य च । तथा मुद्गरादिः सहकारी घटविनाशस्य हेतु: कपालोत्पादस्य च । दि० प्र० । 3 ततः कार्योत्पादः कारणस्य विनाशस्तौ उत्पादविनाशी पक्षः सहेतुको अहेतुको च भवत इति साध्यो धर्मः सहभावाद्ययोः सहभावस्तो सहेतुकासहेतुको यथा रसादिकं सहभावी चेमौ तस्मात्सहेतुकाहेतुको भवतः । दि० प्र० । 4 अत्राह सौगतः । हे आहेत सहभावादिभिर्हेतोः पुरुषबुद्धिभ्यां कृत्वा व्यभिचारोस्ति कोर्थः । पुरुषधिषणे द्वे अपि युगपद्भवतः । तथापि सहेतुके निर्हेतुके वा न भवतः । पुरुषो निर्हेतुकः धी सहेतुका इति चेन्न । कुतः ताथागतानामात्मनः सिद्धिर्नास्ति यतः । स्याद्वादिनां पुन: पर्यायनयात्पुरुषस्य सहेतुकत्वं यथा धिषणायाः पुन व्यनयाद्धिषणाया अहेतुकत्वं यथा पुरुषस्य यत एवं ततः पुरुषधिषणाभ्यां हेतोर्व्यभिचारिता नास्ति । दि० प्र०। 5 आत्मनो निर्हेतुकत्वादुद्धेश्चेन्द्रियाद्यपेक्षया सहेतुकत्वात् । दि० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org