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विसदशकार्योत्पादसहेतुकवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ २०१ स्वाश्रयतो वा' यो समं सहेतुकेतरौ स्तां, प्रतिपत्त्यभिधानभेदेपि ग्राह्यग्राहकाकारवत्, स्वभावप्रतिबन्धात् । न हि तयोमिथः कार्यकारणभावः प्रतिबन्धः, समसमयत्वात् “नाशोत्पादौ सम' यद्वन्नामोनामौ तुलान्तयोः' इति वचनात् । 'नापि स्वाश्रयेण सह कार्यकारणभावः, समनन्तरस्वलक्षणक्षणाभ्यां नाशोत्पादयोरर्थान्तरत्वप्रसङ्गात्। तयोस्तद्धर्मत्वाद्विशेषणविशेष्यभावसंबन्ध इति चेन्न, वैशेषिकमतसिद्धः । कल्पनारोपितत्वात्तयोर्न' तत्सिद्धिरिति चेहि 10पूर्वक्षणविनाशोनन्तर क्षणस्वभावस्तदुत्पादश्चेति सिद्धः स्वभावप्रतिबन्धः । न चैवं 13प्रति
दोनों में एक सहेतुक और दूसरा निर्हेतुक हो सके अर्थात् दोनों का हेतु एक ही है। क्योंकि वह ग्राह्य है, यह ग्राहक है इस प्रकार से ग्राह्य-ग्राहाकाकार के समान प्रतिपत्ति और अभिधान से भेद होने पर भी दोनों में स्वभाव प्रतिबंध है । अर्थात् तादात्म्य संबंध है।
उन नाश और उत्पाद में परस्पर कार्यकारण भाव सम्बन्ध नहीं है क्योंकि वे दोनों समसमयवर्ती हैं। कहा भी है कि- जिस प्रकार से तराज के एक पलड़े का झकना और दूसरे का ऊँचा होना, दोनों एक समय में ही होते हैं क्योंकि एक पलड़े का झुकना ही दूसरे का ऊँचा होना है, तथैव नाश और उत्पाद भी एक समय में ही होते हैं, एक पर्याय का नाश ही दूसरी पर्याय का उत्पाद है। एवं इनका अपने आश्रय के साथ भी कार्यकारण भाव नहीं है। अर्थात् अपने नाश का आश्रय घट है और उत्पाद का आश्रय कपालादि है, इनके साथ भी कार्यकारण भाव नहीं है। अन्यथा समन्तर स्वलक्षण क्षण-क्रम रूप घट और कपाल से नाश और उत्पाद में भिन्नपने का प्रसंग आ जायेगा।
बौद्ध-वे नाश और उत्पाद घट और कपाल के धर्म हैं अतएव उनमें विशेषण-विशेष्य भाव सम्बन्ध है । अर्थात् घट का विनाश और कपाल का उत्पाद इस तरह ये नाश और उत्पाद विशेषण हैं तथा घट और कपाल विशेष्य हैं।
जैन-ऐसा नहीं कहना अन्यथा वैशेषिक मत की सिद्धी हो जायेगी।
सौगत-कल्पना से आरोपित होने से उन दोनों नाश और उत्पाद में वैशेषिक मत की सिद्धि नहीं होगी क्योंकि वैशेषिक ने तो नाशोत्पाद को अपने आश्रय से भिन्न माना है हमने वैसा नहीं माना है।
जैन-तब तो पूर्व क्षण का विनाश ही अनन्तर क्षण स्वभाव है और वही उत्पाद है, यानि जो ही पूर्व क्षण का विनाश वो ही उत्तर क्षण कपाल स्वभाव उत्पाद है। इसलिये इन दोनों में स्वभाव
1 युगपत् । दि० प्र० । 2 एकः सहेतुकः अन्यः अहेतुक इति भवति । दि० प्र०। 3 यथा। ब्या० प्र० । 4 नाशनोत्पादयोः। दि० प्र०। 5 सम्बन्धः । ब्या०प्र०। 6 कारणरूपाभ्याम् । ब्या०प्र० 17 सौगतानाम् । ब्या० प्र० । 8 विशेषणविशेष्यभावेन । दि० प्र०। 9 घटलक्षण । दि०प्र०। 10 एव । ब्या० प्र०। 11 कपाललक्षण । ब्या० प्र०। 12 एवं नाशोत्पादयोः ज्ञानशब्दभेदो न विरुद्धयते। विरुद्धयते चेत्तदा संविदि ग्राह्य ग्राह्यकाकारयोरपि अस्य प्रतिप्रत्यभिधानभेदस्य भेदः प्रसजयति यतः। यत्र एवं ततस्तद्वत्तयो ह्यग्राहकाकारयोर्यथा तथानाशोत्पादयोरभेदएव । 13 अन्यथा । दि. प्र.।
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