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________________ २०० ] अष्टसहस्री । प० कारिका ५३ हेतुवत् । 'स्वरसोत्पन्नमपि तदनन्तरभावित्वात्तेन व्यपदिश्यते इति चेदितरत्र समानम् । कार्यक्षणवत्पूर्वक्षणप्रध्वंसस्यापि हेत्वनन्तरभावित्वाविशेषात्तेन व्यपदेशोस्तु, न वा, कार्यस्यापीत्यविशेषः। परमार्थतस्तदहेतुकत्वे' प्रतिप्रत्त्रभिप्रायाविशेषेपि स्वतःप्रहाणवादी न शक्नोत्यात्मानं न्यायमार्गमनुकारयितुं, तथा वदतस्तस्य न्यायातिक्रमात् । न च निरन्वयविनाशवादिनः सभागविसभागविवेकः श्रेयान्, सर्वदा विरूपकार्यत्वात्, कारणस्य कथंचिदन्वयापाये सभागप्रत्ययायोगात् । सभागविसभागावल्कृप्ति प्रतिप्रत्त्रभिप्रायवशात्समनुगच्छन् सहेतुकं विनाशं ततः किं नानुजानीयात् ? न च समनन्तरक्षणयोन शोत्पादौ पृथग्भूतो मिथः हो जाना चाहिये । यदि कहो कि नहीं होता है तब तो कार्य को सहेतुकपना नहीं हो सकेगा। क्योंकि दोनों में कोई भेद नहीं है । [परमार्थ से हम नाश, उत्पाद दोनों को अहेतुक ही मानते हैं किन्तु समझने वाले के अभिप्राय के निमित्त से उत्पाद सहेतुक है ऐसा हम कह देते हैं इस प्रकार से बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि-] परमार्थ से दोनों को अहेतुक स्वीकार करने पर प्रतिपत्ता का अभिप्राय नाशोत्पाद रूप दोनों जगह समान होने पर भी स्वतः प्रहाणवादी विनाश को स्वतः मानने वाले आप बौद्ध स्वयं अपने को न्याय मार्ग का अनुकरण कराने में समर्थ नहीं हैं । क्योंकि उस प्रकार कहते हुए आपने न्याय का उलंघन ही कर दिया है । कारण निरन्वयविनाशवादी आप बौद्धों के सदृश और बिसदृश कार्य का भेद करना श्रेयकर ही नहीं है अर्थात् यह कार्य इसके सदृश है, यह इससे विसदृश है। ऐसा निरन्वय विनाशवादी आपके यहाँ कैसे किया जा सकेगा? भला आप ही कहिये ! आपने कार्य को सर्वदा विसदृश ही माना है, और कारण को कथंचित् द्रव्यरूप से भी अन्वय रहित मानने पर सदृश कारण का अभाव ही हो जाता है। एवं सभाग विसभाग के सजातीय-विजातीय लक्षण कार्यक्षणों को कल्पना को प्रतिपत्ता के अभिप्राय के निमित्त से स्वीकार करते हुये आप बौद्ध उसी प्रतिपत्ता के अभिप्राय से विनाश को भी सहेतुक क्यों नहीं स्वीकार कर लेते हैं। क्योंकि पूर्वोत्तरक्षण रूप सामांतरक्षण में नाशोत्पादक प्रथकभूत नहीं है। अथवा परस्पर में युगपत अपने आश्रय से भी भिन्न नहीं है। जिससे कि एक समय में ही उन 1 कपालादि । ब्या० प्र०। 2 स्याद्वाद्याह परमार्थात्तस्योत्पादकस्याहेतुकत्वे सति प्रतिपक्षवक्तृश्रोतृजनाभिप्रायेण विशेषाभावेपिस्वभावतोविनाशकथनात् सौगतो न्यायमार्गमनुवर्तयितुमात्मानं न समर्थो भवति कस्माद्यदपि प्रतिपतृत्वभिप्रायादुत्पादविनाशी सहेतुको अथवा निर्हेतुको वा तथापि विनाशः स्वभावतः उत्पादस्य हेतुक इति वदतः सौगतस्य न्यायोल्लंघनं भवति यतः । दि० प्र० । 3 किञ्च समूलविनाशवादिनः सौगतस्य सदृशविसदृशभेदः श्रेयान्न भवति कुतः सदारूपरहितकार्यत्वात् । पुनः हेतोः कथञ्चिदन्वयाभावे सदृशज्ञानं न घटते यतः । दि० प्र० । 4 भेदः । ब्या० प्र०। 5 सदृशविसदृशरचनां तत्राभिप्रायादंगीकुर्वन् सौगतः विनाशमपि सकारणं ततः प्रतिपत्त्रभिप्रायवशात्कथं नानुमन्येत । दि० प्र०। 6 का। दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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