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________________ अवक्तन्यवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ १८७ दलक्षणदशबलत्वोपगमाच्च' कस्यचिदेव करणापाटवात् । तदनेनाशक्यत्वानवबोधवचनलक्षणस्याद्यन्तोक्तिद्वयस्यासंभवो व्याख्यातः । सामर्थ्यादर्थस्याभावादेवावाच्यत्वमिति' किं व्याजेनावक्तव्यं तत्त्वमिति वचनरूपेण ? स्फुटमभिधीयतां सर्वथार्थाभाव' इति, तथा वचने वञ्चकत्वायोगादन्यथानाप्तत्वप्रसक्तेः । [ तत्त्वस्याभावत्वादवाच्यत्वं तर्हि शून्यवाद एव सिद्ध्यति । ] ततो नैरात्म्यान्न विशेष्येत, मध्यमपक्षावलम्बनात्। को पत्र विशेषोर्थस्या एवं सभी पुरुषों में बुद्धि और इन्द्रिय पटुता का अभाव कहना भी युक्त नहीं है। क्योंकि कहीं पर किसी जीव के ज्ञान का सद्भाव है सुगत प्रज्ञापारमित है उसमें क्षमा, मैत्री, ध्यान, दान, वीर्य, शील, प्रज्ञा, करुणा, उपाय और प्रमोद लक्षण वाले दश बल भी माने गये हैं। अत: किसी में ही इन्द्रिय की पटता नहीं है किन्तु सभी के ही न हो ऐसी बात नहीं है। ततः सभी में अवबोध और शक्ति का अभाव युक्त नहीं है। इसलिये अशक्य और अज्ञान लक्षण आदि एवं अंत के विकल्प रूप दो कथन तो असंभव ही हैं । ऐसा कथन किया गया है। अतः सामर्थ्य से अर्थात् पारिशेष न्याय से यही बात सिद्ध हो गई कि पदार्थ का अभाव होने से ही वह पदार्थ 'अवाच्य' है ऐसा कहना चाहिये। "तत्व अवाच्य है" इस वचन रूप बहाने से क्या सार है ? स्पष्ट रूप से कह दीजिये कि सर्वथा पदार्थों का अभाव ही है। और इस प्रकार से कह देने पर आप का सुगत वञ्चक-ठग या मायाचारी नहीं कहलायेगा। अन्यथा वहसुगत अनाप्तअविश्वस्त-असर्वज्ञ ही हो जायेगा। [ तत्त्वों का अभाव होने से हैं अवाच्यता है तब तो शून्यवाद सिद्ध हो जायेगा। ] पुनः यह आपका बौद्ध दर्शन नैरात्म्य दर्शन से भिन्न नहीं हो सकेगा। क्योंकि आपने मध्यम अर्थात् अभाव पक्ष का अवलम्बन ले लिया है। पदार्थों का अभाव होने से तत्त्व अवाच्य है और नैरात्म्य भी शून्यवाद है अतः इन दोनों में ही पदार्थ का अभाव सर्वथा समान होने से क्या अन्तर है ? अर्थात् कुछ भी अन्तर नहीं है। 1 एव । ब्या० प्र० । 2 यत एवं तस्मादनेनानवबोधाशक्यत्वभिन्नप्रतिपादनद्वारेण अशक्यत्वावबोधवचनलक्षण स्याद्यन्तोक्तिद्वयस्यासद्भावो व्याख्यान: सुगस्येति भावः । दि० प्र०। 3 भावादेवान्यत्वमिति । इति पा० । दि. प्र० । 4 स्थाद्वाद्याह सर्वथार्थाभाव इतिसत्यकथने सुगतस्य वञ्चकत्वं न घटते अन्यथा सुगतस्य वञ्चकत्वे सति अनाप्तत्वं प्रसजति । दि० प्र०। 5 यत एवं ततः हे अवक्तव्यवादिन् सौगतभवन्मतं शून्यमतान्न भिद्येत कस्मादभावपक्षा श्रयत्वात् = अर्थस्याभावादभिलाप्यं तथा नैरात्म्यं चानयोर्मध्ये अर्थभेदः कः न कोपीत्यर्थः। दि० प्र०। 6 कारिकोक्ते पक्षत्रयमध्ये । दि० प्र०17 नैरात्म्यावाच्यत्वयोः। ब्या० प्र० । तथा कोह्यर्थ । इति पा० । दि. प्र०। 8 नैरात्म्यमभाव इत्यत्रार्थविशेषो न । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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