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________________ १६२ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ४३ संतानत्वात्सोस्तीति चेन्न, एकसंतानस्य तद्वतः पृथगसत्त्वात्', संतानिन एवापरामृष्टभेदाः सन्तान इति स्वयमभ्युपगमात् सर्वेषां वैलक्षण्याविशेषात् । सन्तानसंकरप्रसङ्गश्चाविशेषेणापरामृष्टभेदत्वस्य' संभवात्, एते' एवाभेदपरामर्शविषया न पुनरन्ये इति विशेषनिबन्धनस्याभावात् । [ स्वभावतो पृथक्-पृथक् संततयः कर्मतत्फलादिसंबन्धे हेतुरितिमान्यतायां जैनाचार्याः संबोधयति । ] विलक्षणानामत्यन्तभेदेपि स्वभावतः किलासंकीर्णाः संततयः 'कर्मफलसंबन्धादिनिबन्धनं शशविषाणस्येव वर्तुलत्वमाचरितं कश्चेतनः श्रद्दधीत ? प्रत्यक्षेणाप्रतीतेर्थे स्वभावस्याश्रयितुमशक्यत्वात् । बौद्ध-उन पूर्वोत्तर क्षणों में संतानता होने से वे कारणकार्य भावादि पाये जाते हैं। जैन-ऐसा नहीं कहना । संतानी से पृथक् एक संतान का अभाव है क्योंकि आपने तो ऐसा स्वीकार किया है कि पूर्वोत्तर क्षण रूप एवं अपरामृष्ट भेद वाले संतानी ही संतान है । एवं सभी क्षणों में परस्पर में विलक्षणता समान है। इस कथन में तो संतान संकर का भी प्रसंग आ जाता है। क्योंकि सभी स्वसंतानवर्ती और भिन्न संतानवर्ती इन दोनों में अपरामष्ट भेद-एक दूसरे का स्पर्श न करते हुये भेद का होना तो समान ही है। "ये ही अभेद परामर्श के विषय हैं किन्तु अन्य भिन्न संतानवर्ती नहीं हैं" इस भेद को करने वाला कोई कारण भी नहीं है। अर्थात् विव.क्षत क्षण जौ के अकुंर के प्रति जो कोई भी अविवक्षित क्षण गेहूँ आदि का बीज कारण हो जायेगा, इस तरह से संतान में अंकुर संकर दोष आ जावेगा। व से ही भिन्न-भिन्न संततियाँ कर्म और उसके फल आदि के सम्बन्ध में कारण हैं ऐसा मानने पर जैनाचार्य समझाते हैं। ] विलक्षणों में अत्यंत भेद के होने पर भी स्वभाव से ही असंकीर्ण संततियाँ कर्मफल और उसके सम्बन्ध आदि में कारण हैं। यह कथन तो इस प्रकार का है कि जैसे खर गोलाकार कहना है। कौन चेतना सहित मनुष्य इस कथन पर श्रद्धान करेगा? अर्थात् स्वभाव से संकीर्ण-मिश्रित अभेद रूप ही संतान परम्परा प्रत्यक्ष आदि-ज्ञान में प्रसिद्ध है। फिर भी स्वभाव से वे अन्य संततियों के साथ असंकीर्ण-भिन्न हैं ऐसा कहना खरगोश के सींग की गोलाई के समान असत् है प्रत्यक्ष के द्वारा अप्रतीत पदार्थ में स्वभाव का आश्रय लेना शक्य नहीं है क्योंकि ऐसा तो आपने स्वयं ही कहा है कि 1 भिन्नत्वेन । ब्या० प्र०। 2 किञ्च । ब्या० प्र०। 3 सन्तानसङ्करप्रसंङ्ग व्यवस्थापयति । ब्या० प्र०। 4 एकसन्तानतिन एव । ब्या० प्र०। 5 कारणस्य । ब्या० प्र०। 6 असंकीर्ण रूपायः सन्तानेरेव प्रत्यक्षादिना प्रसिद्धी स्वभावत: असंकीर्णा इति वचनस्य शशविषाणस्य वर्तलत्वकथनेन समानत्वमेव । दि० प्र० । 7 भवतीत्येतत्स्वभावनिबन्धनत्वम् । ब्या० प्र० । 8 इव शब्दो भिन्नक्रमे तेन वर्तलमिवारचितं कल्पितमिति द्रष्टव्यम् । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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