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________________ १६० ] अष्टसहस्री [ तृ० ५० कारिका ४२ विशेषनिरपेक्षाः पटस्वभावं प्रतिलभमानाः समुपलभ्यन्ते, येन तन्तुमात्रस्यैव विधिनियमो विशेषप्रतिषेधनियमो वा स्यात् नापि तन्तुनिरपेक्षो विशेष एव पटस्वभावं स्वीकुर्वन्नुपलभ्यते यतो विशेषविधिनियमस्तन्तुप्रतिषेधनियमो वावतिष्ठेत । न चोपलब्ध्यनुपब्धी मुक्त्वान्यन्निमित्तं 'तद्विधिप्रतिषेधयोनियमस्ति येन तदत्ययेपि तदुभयप्रतीतेरपलापः शोभेत । ननु च नास्ति तन्त्वाद्यन्वय उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरिति स्वभावानुपलब्धिस्तत्प्रतिषेधनियमनिमित्तं, विशेषमात्रस्यैवोपलब्धस्तद्विधिनियमहेतुत्वादिति चेन्न, 'तन्त्वाद्यन्वयवत्तद्विशेषस्यापि 'निरपेक्षस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरविशेषात्प्रतिषेधनियमप्रसङ्गात् । तस्मादुपलब्धिलक्षण प्राप्तानुपलब्धिरनन्वयस्यैव' न पुनरुभयरूपस्य । इत्यलं प्रसङ्गन । सर्वथान्वयविशेषयोरेव प्रतिषेधनियमस्य निमित्ताभावात् तदुभयरूपजात्यन्तरस्यैव विधिनियमस्य सकता। तथा उन तंतु सामान्य और तंतु विशेष की विधि प्रतिषेध का नियम करने में उपलब्धि और अनुपलब्धि को छोड़कर अन्य कोई कारण भी नहीं है। कि जिससे उस नियम के अभाव में भी उन दोनों की प्रतीति का अपलाप शोभित हो सके। बौद्ध -"तंतु आदि में अन्वय नहीं है। क्योंकि उपलब्धि लक्षण प्राप्त की अनुपलब्धि है।" अर्थात् सामान्य रूप तंतु आदि की पटादि में उपलब्धि नहीं हो रही है। और यह स्वभावानुपलब्धि हेतु उस तंतु आदि के अन्वय का प्रतिषेध करने वाला निमित्त है, कारण कि विशेष मात्र ही तंतु उपलब्ध हो रहे है । वे ही वस्त्र की विधि का नियम कराने में हेतु हैं। जैन-ऐसा नहीं कह सकते । क्योंकि तंतु आदि के अन्वय के समान सामान्य से निरपेक्ष और उपलब्धि लक्षण प्राप्त वे तंतु विशेष उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। अत: दोनों की अनुपलब्धि समान होने से तंतु विशेष के भी प्रतिषेध के नियम का प्रसंग आ जायेगा। अत: परस्पर निरपेक्ष सामान्य और विशेष की उपलब्धि नहीं है । इसलिये अनन्वय-अन्वय रहित वस्तु की ही उपलब्धि लक्षण प्राप्त अनुपलब्धि है किन्तु उभय रूप सामान्य विशेषात्मक वस्तु की अनुपलब्धि नहीं है । अतः इस प्रसंग से बस हो। 1 तन्तुतन्तुविशेषविधिप्रतिषेधयोः नियमे अवधारणे दर्शनादर्शने त्यक्त्वा अन्यत्किञ्चिन्निमित्तं नास्ति तस्योपलब्ध्यनुपलब्धिलक्षणनिमित्तस्यापगमे तदुभयप्रतीतेः तन्तुत द्विशेषाश्वासस्यापलापो निषेधो येन केन शोभेत अपितु न शोभेत । दि० प्र०। 2 सौगतो वदति । हे स्याद्वादिन तन्त्वाद्यऽन्वयो नास्ति कस्मादुपलम्भलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भात् । इति स्वभावानुपलब्धिः । तस्यान्वयप्रतिषेधनियमस्य । कारणं भवति कस्मात् । विशेषमात्रस्यैव उपलम्भात् दर्शनात् । पुनविशेषविधिनियमकारणत्वादिति चेन्न । यथाविशेषनिरपेक्षस्य तन्त्वाद्यस्य तथा अन्वयनिरपेक्षस्य तन्तुविशेषस्याप्युपलम्भलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भादुभयत्रापि विशेषाभावादेवं सति विशेषप्रतिषेधनियम: प्रसजति यतः । दि० प्र०। 3 अनुस्यूति: घटे: । ब्या० प्र०। 4 तन्तुरूपादर्शनम् । (दि० प्र०)। 5 तन्तुः। दि० प्र०। 6 ताः । ब्या०प्र० । 7 प्राप्तास्य । इति पा० । ब्या० प्र० । 8 सर्वथा अन्वयः सर्वथाविशेषश्च प्रतिषेधनियमनिमित्तं भवति =अन्वयविशेषतदुभयजात्यन्तर एव पट कार्योत्पत्तौ विधिनियमस्य निमित्तं भवति । 9 निमित्तभावात् । इति पा० । दि० प्र० . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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