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________________ क्षणिक एकांत का निराकरण ] तृतीय भाग [ १४७ भिलाषादेश्च संताननियमसिद्धिरिति' चेन्न, तस्यैवासंभवात् । सर्वथा वैलक्षण्ये पुंसोर्थस्य च न वै प्रत्यभिज्ञानादिः पुरुषान्तरवदर्थान्तरवच्च । ततः 'कर्मफलसंबन्धोपि नानासंतानवदनियमान्न युक्तिमवतरति । तदनादिवासनावशात्तन्नियम इति चेन्न, 'कथंचिदप्यतादात्म्ये कार्यकारणक्षणयोस्तदघटनात्तद्वत् । तत्सूक्तं 'क्षणिकपक्षो बुद्धिमद्धिरनादरणीयः सर्वथार्थक्रियाविरोधान्नित्यत्वैकान्तवत्'। न चार्थक्रिया कार्यकारणरूपा सत्येव कारणे स्यादसत्येव वा । सत्येव कारणे यदि कार्य, त्रैलोक्यमेकक्षण वत्ति स्यात्, कारणक्षणकाले में ज्ञान और ज्ञेय प्रतिक्षण विलक्षण ही हैं। अर्थात् क्षण में क्षय-नष्ट हो जाना मतलब एक क्षणमात्र ही स्थित रहना जिसका लक्षण है ऐसे क्षण में क्षय होने वाले एकांत में ज्ञान और ज्ञेय में प्रतिक्षण भेद ही बना रहेगा फिर सर्वथा विज्ञान मात्र तत्व कैसे सिद्ध होगा ? बौद्ध-"मैं वही हूँ यह वही है" इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञान से, अनुस्मरण से और अभिलाषादि के होने से संतान का नियम सिद्ध है। जैन-ऐसा नहीं कहना । क्षणिक एकांत में तो प्रत्यभिज्ञान स्मरण अभिलाषा आदि ही असंभव हैं। कारण कि पुरुष और पदार्थ में सर्वथा विलक्षणता होने से । प्रत्यभिज्ञान आदि भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं, जैसे कि भिन्न-भिन्न पुरुष में और भिन्न-भिन्न पदार्थ में भेद होने से वे प्रत्यभिज्ञानादि असंभव है। पुन: ज्ञानज्ञेय में सर्वथा विलक्षणता होने से प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती है। अतएव कर्मफल सम्बन्ध भी अनियमित होने से युक्ति पथ को प्राप्त नहीं हो सकता है। जैसे कि नाना संतानों में नियत संतान का अभाव होने से कर्मफल सम्बन्ध नहीं बन सकता है। अर्थात् जैसे नाना संतान में कर्मफल सम्बन्ध युक्ति युक्त नहीं है क्योंकि उनमें नियत संतानों का अभाव है। तथैव सर्वथा क्षणिक में भी कर्मफल सम्बन्ध असंभव ही है। 1 ज्ञानज्ञेयसन्तान । दि० प्र०। 2 असंभवत्वमेव भावयति । दि० प्र०। 3 पूरुषस्य सर्वथा भिन्नत्वे सति घटादेरर्थस्य सर्वथा भिन्नत्वे सति प्रत्यभिज्ञानादिसर्वः वैस्फुटं न संभवति किं वत् ? पुरुषान्तरवत् यथा देवदत्तस्य यज्ञदत्तस्य च भिन्नत्वे अन्यच्च घटस्य पटस्य अन्योन्यं भिन्नत्वे प्रत्यभिज्ञानादिर्न संभवति-ततः सर्वथाक्षणिकपक्षे प्रत्यभिज्ञानाद्य भावात् सुखदुखाद्यनुभवन संबन्धो युक्ति नाधिरोहति कस्मात् अनियमात् । सौगतमते अन्यसंतानः भोक्तायः कर्ता स भोक्ता इति नियमाभावात् । यथा भिन्नसन्तानस्य देवदत्तस्य कर्मफलसंबन्धो यज्ञदते युक्तिं नावतरति । यज्ञदत्तस्य कर्मफलसंबन्धो देवदत्ते युक्तिं नावतरति । दि० प्र० 4 यतः । दि० प्र०। 5 पुण्यादि । दि० प्र०। 6 अत्राह सौगत: सन्तान अनादिवासनावशात् प्रत्यभिज्ञानादि नियमो घटते इति चेन्न । कस्मात्कारणकार्थियोः कथञ्चित्तादात्म्याऽभावेतस्य वासनानियमस्यासंभवात् । 'भिन्नसन्तानवत् । दि० प्र०। 7 ज्ञानापेक्षयापि । दि० प्र०। 8 न कार्यारम्भेति कारिकांशं व्याख्यायन्ति तत्सूक्तमिति । दि० प्र०। 9 सौगतो वदति । अस्मत् क्षणिकपक्षे अर्थक्रिया अस्ति इत्युक्ते सा अर्थक्रिया कीदशी कार्यकारणरूपा। सा अर्थक्रिया सत्येव कारणे स्यादसत्येवेति विकल्पद्वयं । दि० प्र० । 10 तर्हि । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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